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२२८
रस-मीमांसा

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२२८ इस-मीमांसा इसी प्रकार जिस पर क्रोध है उसके यथेष्ट उत्पीड़न से और जिस कर्म के प्रति उत्साह हैं उसके सम्यक् साधन से भी बराबर संतोष होता है। संतोष के समान 'असंतोष के उदाहरण भी कार्यों में बहुत सुंदर मिलते हैं-विशेषतः शृंगार में, जैसे [ मोइन अनूप बने रूप-ठगो आँखें इतै, इनकी उरझ की छत्रीले येई साखियै । पीवति अघाय प्यास बाढ़िये रति महा, अहा अचरज कहाँ कहा कहिं भाखियै । ज्ञानमनि जीवन-उदार रिझवार छैन, जसुधा-कुँवर गुन गहि अभिलाखियै । चोप चातकी हैं भई आनँद के घन इौ जू, सुदरस-रस दै रसीले रस राखियै ।।] राग, द्वेष, हास्य आदि की प्रेरणा से उत्पन्न वह मानसिक अस्थिरता चपलता कहलाती है जिसके अनुसार लोग अनेक प्रकार की ऐसी चेष्टाएँ प्रदर्शित करते हैं जो नियमित प्रयत्न की दशा को नहीं पहुँच -जैसे, नायक को देखकर नायिका का बिना प्रयोजन इधर उधर करने लगना, किसी को खोदकर या चपत लगाकर भागना इत्यादि ; किसी बेढंगे मूर्ख को देखकर कहने लगना कि इट जाओ सामने से, अमुक शास्त्रीजी आते हैं; १ [मात्सर्यद्वेषरागाश्चापल्यं वनवस्थिति: । तत्र भत्र्सनपारुष्यस्वच्छन्दाचरणादयः ॥ | -साहित्यदर्पण, ३-१६६ ।] २ [गुरोर्निरः पञ्च दिनन्यिधीत्य वेदान्तशास्त्राणि दिनत्रयं च ।। अमी समाधाय च तर्कवादान्समागताः कुक्कुटमिश्रपादाः ।। - साहित्यदर्पण, १५२ ।]