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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा प्रायः ईष्र्या होती है। जिसे हम एक मात्र ‘महात्मा' समझते हैं। उसके अतिरिक्त अन्य के महत्व की बात हमें प्रायः नहीं सुहाती । हमारे राग और द्वेष के आलंबनों के संबंध से हमारे अनेक भावों के और और आलंबन खड़े होते रहते हैं। जिससे इमें द्वेष होता है उसके साथ द्वेष रखनेवालों से प्रेम और प्रेम रखनेवाडौँ से द्वेष प्रायः हमें भी हुआ करता है। यहाँ तक तो नियत संचारियों की बात हुई । इनके अतिरिक्त प्रधानों में परिगणित कोई भाव भी दूसरे प्रधान भाव का संचारी होकर आ सकता है जैसे, रति और उत्साह में हास, युद्धोत्साह् में क्रोध। पहले यह कहा जा चुका है कि प्रधान भावों में आलंबन की ओर ध्यान मुख्यतः रहता है। अतः भिन्न आलंबन रखनेवाला भाव संचारी नहीं हो सकता, क्योंकि एक ही अवसर पर ध्यान मुख्य रूप से दो विषयों की ओर नहीं रह सकता। बात ठीक है, पर भिन्न विषय या आलंबन की ओर ध्यान स्थित होने से भी यदि प्रधान भाव की गति-प्रवृत्ति में कोई बाधा न पड़े और संचारी होकर आनेवाला भाव ऐसा हो कि उसका कोई रूप प्रधान भाव के साथ बराबर लगा रहता हो तो वह भाव संचारी हो सकता है। आलंबन एक होने पर भी यदि दो भावों की गति और प्रवृत्ति परस्पर भिन्न है तो उनके बीच स्थायी संचारी का संबंध नहीं हो सकता । युद्धोत्साह के संचारी क्रोध को लीजिए । युद्धोत्साह और क्रोध दोनों की गति या प्रवृत्ति एक ही है। एक ही व्यापार द्वारा युद्धोत्साह और क्रोध दोनों के लक्ष्य का साधन हो जाता है। शस्त्र आदि चलाने से युद्ध-कर्म के प्रति उत्साह की भी तुष्टि होती है और अनिष्टकारी के नाश की इच्छा की भी । गति और प्रवृत्ति की भिन्नता न होने से क्रोध युद्धोत्साह का संचारी होकर आ सकता है। अतः यह स्थिर हुआ