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रस-मीमांसा

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१४२ । । . हस-मीमांसा पार्थेन परि, मृदु बचन कहि, प्रिय कीनी मनुहारि । नेकु तिरीॐ चितै तब, दोनै अँसुवा दारि ।। इसमें दृष्टिपात और अश्रुपात द्वारा मान या क्रोध की शांति व्यंजित की गई है। | भावशांति यदि सच्ची हो और उसका कारण कोई प्रबल भाव या वेग ही हो तो मनुष्य की प्रकृति पर उसका अत्यंत मर्मस्पर्शी प्रभाव पड़ता है। बुद्धि या विवेक द्वारा निष्पन्न भावशांति काव्य के उतने काम की नहीं। हल्दीघाटी की लड़ाई में जब कुछ मोगल महाराणा प्रताप का पीछा किए चले आते थे और महाराणा अपने घोड़े पर नदी पार कर चुके थे तब उनके भाई सत्ता सहसा प्रकट हुए । उनका भातृस्नेह उमड़ आया और सारा बैर-भाव छोड़ महाराणा के पैरों पर गिर कर रोने लगे। अनुचित भाव की शांति देख श्रोता या दर्शक को एक अपूर्व आत्मतुष्टि प्राप्त होती है। कभी कभी तो जब तक ऐसे भाव की शांति नहीं दिखाई जाती तब तक श्रोता उसके लिये उत्सुक रहता है। राम के प्रति परशुराम के गर्व को देख श्रोता मन ही मन उसके परिहार के अवसर की प्रतीक्षा करता रहता है जिस समय राम परशुराम का दिया हुआ धनुष चढ़ा देते हैं और परशुराम नत होकर विनय करने लगदे हैं उस समय पाठक या दर्शक के १ [ साहित्यदर्पण में उदाहृत निम्नलिखित छंद से मिलाइएसुतनु जहिहि कोपं, पश्य पादानत मां, न खलु तब कदाचित्कोप एवं विमोऽभूत् ।। इति निगदति नाथे तिर्यगामीलिताच्या, नयनजमनल्प मुकमुक्त न किंचित् ।। ... -नृतीय परिच्छेद, श्लोक २६७ । ]