पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२५८

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अरबद्ध भघि का रसवत् ग्रहण हृदय पर से एक बोझ सा हुदा जान पड़ता है। आख्यान रूप प्रबंधकाव्यों में ऐसे स्थल बहुत आते हैं। अनिष्ट पात्रों के गर्व, आह्लाद आदि की और इष्ट पात्रों के विषाद, शंका, भय आदि की निवृत्ति के अवसर के लिये पाठक बराबर उत्सुक रहते हैं। मनुष्य के शील-निर्माण में भाव-शांति' का दृश्य ‘भाव-स्थिति के दृश्य से कम प्रभावोत्पादक नहीं होता। कभी कभी दो या दो से अधिक परस्पर असंबद्ध भाव एक ही प्रसंग में प्रकट किए जाते हैं। साहित्य के पंडित लोग ऐसे दो। भावों के साथ को ‘भाव-संधि' और दो से अधिक भावों के संघात को ‘भाव-शबलता' कहते हैं। चित्त की चंचलता से भिन्न भिन्न पक्षों के अंतःकरण में उपस्थित होने के कारण एक ही विषयप्रसंग में दो या कई भावों का क्रमशः संचार होना एक बहुत ही स्वाभाविक बात है। लोग ऐसा कहते बराबर सुनाई पड़ते हैं कि ‘तुम्हारी बात पर हँसी भी आती है, क्रोध भी अता है, दुःख भी होता है । ये भाव परस्पर जितने ही विरुद्ध होते हैं, उतना ही चमत्कार जान पड़ता है। एक विषय पर ध्यान के देर तक न जमने के कारण ऐसे भाव इतने अस्थिर होते हैं कि एक का अनुभव होते न होते दूसरे का उदय हो जाता है। दोनों के बीच अंतर बहुत सूक्ष्म पड़ता है। यह भाव-शवलता दो बातों पर अवलंबित होती है| ( १ ) प्रसंगगत विषयों के संयोग-वैलज्ञण्य पर, । (२) आश्रय के अंतःकरण की स्थिति पर । एक ही प्रसंग के भिन्न भिन्न पक्ष लेने से विषयों का ऐसा संयोग हो सकता है कि उन सबकी योर वृत्ति के उन्मुख होने से लगातार कई भावों का संचार प्रायः सब मनुष्यों के हृदय में हो सकता है। पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि कुछ एक के