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रस-मीमांसा

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२४॥ रस-मीमांसा विषय तो सचमुच उपस्थित होते हैं और कुछ के लिये विषयों के रूप, अंतःकरण की तात्कालिक या प्रकृतिगत स्थिति के कारण, कल्पना आप से आप उसी एक प्रसंग में से निकालकर खड़ा करती है। विक्षिप्तों की कल्पना तो ऐसे विषयों को लगातार उपस्थित करने में क्षिप्र होती ही है। पर कभी कभी वृत्ति की चंचलता के कारण और मनुष्यों की भी दशा ऐसी हो जाती है । बुद्धि की लगाम जितनी ही ढीली होगी भावों की यह घुड़दौड़ उतनी ही अधिक होगी। बुद्धि अपनी प्रधानता की दशा में ऐसे विषयों को जिनका तात्कालिक प्रसंग में कोई प्रयोजन नहीं इतना टिकने ही न देगी कि वे कोई भाव उभार सकें। एक खास बनावट के दिमागवाला आदमी सिर पर दूसरे का बोझ ले जाते समय यह सोचकर गर्व कर सकता है कि मैं मजदूरी के पैसों से रोजगार करके धनी हो जाऊँगा, फिर जो मेरे साथ हुलका व्यवहार करेंगे उनको मैं देख लू गा, इत्यादि । पर अर्थ-कुशल लोगों की दृष्टि इस प्रकार लक्ष्यच्यूत नहीं हुआ करती । अतः धीर और संयत वृत्ति के पात्र में भाव-शबलता यदि दिखाई जा सकती है तो वहीं जहाँ एक ही प्रसंग के सचमुच ऐसे अनेक पक्ष हों जो भिन्न भिन्न भावों के विषय हो सकें। उद्वेगशील जातियों में भाव-शबलता की संभावना अधिक होती है। हमारे बंगाली भाइयों के गर्जन-तर्जन और क्रंदन के बीच बहुत अल्प अवकाश अपेक्षित होता है। किसी एक भाव के कारण भी कभी कभी बुद्धि सिमटकर किनारे हो जाती है और कल्पना किसी एक ही प्रसंग में अनेक रूपों की उद्भावना करने लगती है। विक्रमोर्वशी में उर्वशी के स्वर्ग चले जाने पर पुरुरवा विरह-वेदना से चंचल होकर कहता है “कहाँ यह निषिद्ध कार्य, कहाँ मेरा चन्द्रवंश ! क्या वह