पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६०

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असंबद्ध भावों का रसवत् ग्रहण फिर कभी दिखाई पड़ेगी ? अहो यह क्या मैंने तो कामादि दोषों का शमन करनेवाले शास्त्र पढ़े हैं। अहा ! क्रोध में भी प्रिय दर्शन उसका मुखड़ा ! भला निष्कल्मष कृतविद्य लोग मेरे इस आचरण पर क्या कहेंगे ? हाय । वह तो अब स्वप्न में भी दुर्लभ है। हे चित्त ! धीरज धर । न जाने कौन धन्य युवा उसका अधरपान करेगा | | इस कथन में पहले वाक्य से वितर्क, दूसरे से उत्कंठा, तीसरे से मति, चौथे से स्मरण, पांचवें से शंका, छठे से दैन्य, सातवें से धैर्य और आठवें से चिंता या ईष्र्या व्यंजित होती है। अब यहाँ पर यह जानने की इच्छा होती है कि एक भाव के कारण चित्त की ऐसी चंचल दशा से उस भाव की तीव्रता समझो जा सकती हैं या नहीं । यदि भाव का वेग तीव्र होगा तो ध्यान दूसरे विषयों की ओर जायगा कैसे ? इसका उत्तर यह है कि भाव के अधिक तीव्र होने से कभी कभी चित्त विक्षेप हो जाता है और उन्माद की सी दशा हो जाती है जिससे चित्त एक पक्ष पर स्थिर न रहकर इधर उधर दौड़ने लगता है। दूसरा प्रश्न यह उठता है कि जब एक ही भाव के कारण सब भाव उत्पन्न हुए हैं तब सबके सब कुरुण बिप्रलंभ रति के संचारी क्यों न माने जायें । इसलिये किं करुण विप्रलंभ यहाँ शब्द और अनुभाव द्वारा प्रधानता से व्यंजित नहीं है । इन भावों का विचार अलग ही हुआ है। रस । १ [ का कार्यः, शशलक्ष्मणः क्व च कुलं, भूयोपि दृश्येत सा, दोघाण प्रशमाय नः श्रुतमहो, कोपेऽपि कान्तं मुखम् । किं वक्ष्यन्त्यपकल्मषाः कृतधियः, स्वप्नेऽपि सा दुर्लभा, चेतः स्वास्थ्यमुपैहि, कः खलु युवा धन्योऽधरं पास्यति ॥ -साहित्यदर्पण, ३-३६७ ।]