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रस-मीमांसा

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३१६ रस-मीमांसा पर्यंत पुष्ट विप्रलंभ रति के साथ यहाँ यदि ये संबद्ध माने जायँ तब तो सबका ग्रहण विप्रलंभ शृगार रस के रूप में ही होगा पर आचार्यों ने इनके संघात को रसवत् माना है । सारांश यह कि असंबद्ध रूप में अलग विचार करने से ये सब भाव मिलकर भाव-शबलता के उदाहरण होंगे और आक्षेप द्वारा रति भाव से संबद्ध मानने से करुण विप्रलंभ के संचारी होंगे। ऐसा सिद्धांत न रखने से जहाँ कहीं किसी रस में दो संचारी हुए वहाँ भाव-संधि और जहाँ दो से अधिक हुए वहाँ भावशबलता कहनी पड़ेगी। पर रस के प्रवल प्रभाव के सामने भावसंधि या भाब-शबलता के चमत्कार का विचार अनावश्यक होगा । अतः इन दोनों का प्रतिपादन रस के अंगरूप में नहीं होना चाहिए । भाव-संधि आदि का विशुद्ध उदाहरण वही होगा जिसमें दो या कई भाव किसी एक ही स्फुट प्रधान भाव के संचारी के रूप में न होंगे, स्वतंत्र होंगे। इस दृष्टि से साहित्यदर्पणकार के इस उदाहरण से नयनयुगा सेचनकं मानसूवृत्त्यापि दुष्पम् ।। रूपमिदं मदिराच्या मदयति हृदयं दुनोति च में ॥ [ साहित्यदर्पण, ३-२६७ । ] ‘दास' का यह उदाहरण अधिक उपयुक्त हैं कंस दलन पर दौर उत इत राधा-हित भोर । | चलि रहिं सकै न श्याम चित ऐच लगी दुहुँ ओर ॥ पहले उदाहरण में हर्ष और विषाद रात के संचारी होकर आए हैं, पर दास के उदाहरण में उत्साह और रति दो परस्पर स्वतंत्र भावों की संधि है। साहित्य दर्पणकार के उदाहरण में इर्ष और विषाद के परस्पर अत्यंत विरुद्ध होने से चमत्कार