पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६२

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असंबद्ध भावों का बसवत् ग्रहण २५७ अधिक है। पर हर्ष और विषाद दो अलग अलग भावों के शसिन में भी रखे जा सकते हैं, जैसे पीहर को न्योतो सुनत पिय-अनुरागिन नारि । बिसी, दीर्घ उदास पुनि लीनी कछुक विचारि । यहाँ नायिका के इर्ष का कारण माता-पिता का स्नेह और विषाद का कारण नायक के प्रति अनुराग है। भिन्न भिन्न आलंबन के प्रति होने से हर्ष और विषाद दोनों का कारण एक ही ‘रति भाव नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भाव-संधि का एक गढ़ उदाहरण दिया है। जब हनुमानजी ने अशोक के पेड़ पर से राम की मुद्रिका सीताजी के सामने गिराई तब| चकित चितै मॅदरी पहिचानी । इर्ष बिषाद इदय उर अनी ॥ | [ राम-चरितमानस, पंचम सोपान ।] यहाँ इषं तो राम के प्रति रति का संचारी है पर उनका विषाद् रति के संचारी के भीतर नहीं है। इस विषाद का मूल वियोग नहीं है घोर अनिष्ट की आशंका है। अतः यह उदाहरण भावसंधि का है। हर्ष और विषाद् की परस्पर विजातीयता से इसमें चमत्कार भी पूरा है। इस संबंध में एक शंका यह उठाई जा सकती हैं कि हर्ष और विषाद की यह संधि भावक्षेत्र में रखी जानी चाहिए या प्रेयस आदि अलंकारों में। ये भाव रसक्षेत्र के भीतर ही माने जायँगे क्योंकि ये किसी दूसरी वस्तु या भाव के अंग होकर नहीं आए हैं। केवल वाच्य द्वारा कथन होने से रसक्षेत्र से निकाले नहीं जा सकते ।।