पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६४

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विरोध-विचार १४६ इस प्रकार के विरोध की आशंका हो सकती है। पर जो प्रबंधपटु कवि होगा वह एक भाव की पूर्ण ( रस रूप में ) व्यंजना हो जाने पर प्रसंग की स्वाभाविक गति के अनुरोध से दूसरे विरुद्ध भाव के आने के पहले कुछ अंतर अप से अाप डालेगा। इस दृष्टि से नैरंतर्यकृत विरोध का विचार एक प्रकार से अनावश्यक ही समझिए। अतः आगे जो कुछ कहा जायगा उसे साहचर्य कृत विरोध के संबंध में हीं समझना चाहिए। पर एक ही रस की व्यंजना के विरुद्ध भाव की व्यंजना न होने पर भी श्रोता की दृष्टि से विरुद्ध सामग्री घुस सकती है। यह वहाँ होगा जहाँ किसी भाव के उत्कर्ष आदि की व्यंजना करते समय कवि जान या अनजान में ऐसी वस्तुओं का उल्लेख कर जायगा जो विरुद्ध भाव का आलंबन या उद्दीपन हो सकती हैं। जिस पात्र के मुख से ऐसी वस्तुओं के नाम कहलाए जायँगे वह तो अपने भाव के वेग में उन नामों के संकेत पर, संभव है, ध्यान न दे पर उन शब्दों द्वारा वस्तु और व्यापार का जो चित्र ( Imagery ) ओता के अंतःकरण के सामने खड़ा होगा उसका विचार रखना परम आवश्यक है क्योंकि रस-संचार प्रधानतः उस चित्र पर अवलंबित होगा। हमारे यहाँ के प्राचीन कवियों ने इस बात का विचार रखा है कि किसी एक रस के वर्णन के भीतर उसी रस की उत्कर्ष-व्यंजना के लिये भी ऐसी सामग्री सामने न आने पावे जो विरुद्ध भाव का आलंबन हो सके। श्रृंगार के वर्णन में ऐसी वस्तुओं का उल्लेख न मिलेगा जिनके सामने आने से भय या विरक्ति उत्पन्न हो। विप्रलंभ शृगार में भी विरहिणी के ताप का कमल उशीर आदि के द्वारा शमन न होना • आदि ही वर्णन किया गया है-कलेजे में आवले पड़ना, जख्म का मुहँ खुलना, मवाद बहना आदि नहीं।