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रस-मीमांसा

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२५ एस-मीमांसा फारसी-उर्दू की शायरी में उपस्थित चित्र ( Imagery ) का कुछ भी ध्यान नहीं रखा गया है, भाव के उत्कर्ष और मुहावरे के जोर पर ही ज्यादा जोर दिया गया है, जैसे( क ) बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, नो चीरा तो एक क़तरए खून निकला। [ अतिश ] ( ख ) जखम के भरने तलक नाखुन ने बढ़ आएंगे क्या ? [ गालिब ] (ग ) ऐ हुमा ! क्या मुँह है तेरा पोस्तकंदः भुझसे सुन | उस्तवाँ मेरे हैं सच वक् सगाने कुए दोस्त । यह तो एक ही रस के भीतर विरुद्ध भाव की सामग्री मात्र आ जाने की बात हुई । पर कहीं कहीं एक ही पद्य के भीतर दें। रसों या भावों का भी प्रश्नय आलंबन भिन्न भिन्न रखकर समाबेश हो सकता है। ऐसे स्थलों में श्रोता ही की दृष्टि से विरोध का विचार करना होगा । भावों का जो दो वर्गों में विभाग किया गया हैं देखिए वह कहाँ तक इस विचार में काम देता है। उक्त वर्ग-विधान के अनुसार प्रथम चतुष्टय के आनंदात्मक भाव परस्पर सजातीय और द्वितीय चतुष्टय के दुःखात्मक भाव परस्पर सजातीय होंगे। पर द्वितीय चतुष्टय का कोई भाव प्रथम चतुष्टय के प्रत्येक भाव का विजातीय होगा। इस दृष्टि से करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स चारों में से प्रत्येक श्रृंगार, हास, वीर और अद्भुत में से प्रत्येक का विरोधी ठहरता हैं । पर युद्धवीर के साथ रौद्र, भयानक और बीभत्स प्रायः लगे रहते हैं। इसका कारण आलंबन की अनेक-रूपता है। पहले कह आए हैं कि युद्धोत्साह का आलंबन युद्ध-कर्म ही होता है जिसके भीतर रौद्र, भयानक और १ [ देखिए ऊपर पृष्ठ १६३ । ]