पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२६८

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विरोध-विचार २५३ साथ नहीं हो सकते जैसे जिस व्यक्ति के प्रति कोई रति भावे प्रकट कर रहा है उसी के प्रति उसी अवसर पर वीर भाव या य जुगुप्सा का भाव नहीं प्रकट कर सकता। अतः रति के साथ युद्धवीर का भाव सजातीय होने पर भी एक ही आलंबन के प्रति होने से विरुद्ध हो जायगा । भिन्न भिन्न आलंबनों के प्रति ये दोनों भाव एक साथ रखे जा सकते हैं, जैसे सोय, गौर कपल पुलकित लखत वारंबार हो । दनुज कलकल सुनत राघव जटा बाँधि सँभारही ॥' यहाँ एक ही राम में इन दोनों भावों का समावेश दूषित नहीं। एक ही आलंबनगत होने से जितने भाव परस्पर विरुद्ध होते हैं उतने और किसी प्रकार नहीं । सजातीय भाव भी कभी कभी एक ही आलंबन के प्रति होने से परस्पर विरुद्ध हो जाते हैं । जो प्रेम का पात्र दिखाया जा रहा है वह उसी अवसर पर अवज्ञा पूर्ण उपहास और युद्धोत्साह का आतंबन नहीं बनाया जा सकता। इसी प्रकार जो क्रोध का आलंबन है वह साथ ही भुय का भी आलंबन नहीं दिखाया जा सकता। पर जिस हास्य का विरोध शृगार के साथ कहा गया है वह अवज्ञापूर्ण हास है। विनोदपूर्ण हास रति भाव के साथ आ सकता हैं। शिव के विचित्र वेश पर हास्य की व्यंजना भक्तिभाव के साथ बराबर की गई है। रामचरितमानस में शिव की बरात का वर्णन ही लीजिए। पहले कहा जा चुका है कि भावों के अनेक भेद भिन्न भिन्न आलंबन के स्वरूप भेद की भावना के कारण निर्दिष्ट हुए हैं। इसी भेद-व्यवस्था के अनुसार एक ही आलंबन में परिस्थितिभेद १. [ मिलाइए चिंतामणि, पहला भाग, लोभ और प्रीति', पृष्ठ १२॥]