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२५४
रस-मीमांसा

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२५४ इसमीमांसा से कुछ नये स्वरुप की भी योजना हो जाती है। जैसे, रति भाव का आलंबन नायिका यदि कुछ दुःख यो पीड़ा में हैं तो उसे उस स्वरूप के अतिरिक्त स्वरूप कुछ प्राप्त हो जाता हैं जो रति भाव का आलंबन है। ऐसी दशा में कोई भाव यदि इतना स्थायी है। किं आलंबन के परिस्थितिभेद से उत्पन्न कोई अन्य भाव विजातीय होने पर भी उसे दबा नहीं सकता और संचारी भी नहीं कहला सकता तो दोनों भाव एक ही आलंबन के प्रति एक साथ दिखाए जा सकते हैं। एक उदाहरण कल्पित कीजिए शिलाखंड सों अदु कि सिय गिरी चोट अति खाय । नयन नीर भरि पुलकि प्रभु लियौ अंक में लाय ॥ यहाँ पर रति भाव और करुण एक ही आतंबन के प्रति विरुद्ध नहीं हैं। जिसे आचार्यों ने श्रृंगार का विरोधी कहा है वह मरणजन्य आदि पूर्ण शोक है जो अत्यंत दारुण होता है। अल्प कारण से उत्पन्न साधारण करुणा विज्ञातीय होने पर भी रति भाव का विरोधी नहीं । बहुत से कुशल उपन्यासकारों ने किसी आलंबन के प्रति करुणामिश्रित प्रेमभाव की उत्पत्ति बड़ी सहृदयता से दिखाई है ।। ऐसे स्थलों में करुणा में विरोध की मात्रा कुछ भी नहीं होती। विरोध की मात्रा का निर्णय दो भावों की प्रवृत्तियों के मिलान से हो सकता है। जैसे, रति भाव आलंबन को प्यार से प्रसन्न करने के लिये प्रवृत्त करता है, क्रोध आलंबन को पीड़ित करने के लिए, जुगुप्सा और भय उससे दूर हटने के लिये, करुणा उसके हित साधन या प्रबोघ के लिये । अतः रति भावके साथ क्रोध, भय और जुगुप्सा का विरोध अयंत अधिक है। रति भाव के साथ साधारण करुणा की प्रवृत्ति का विरोध नहीं है। शृंगार