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रस-मीमांसा

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२० रस-मीमांसा मनोवृत्तियों या भावों की सुंदरता, भीषणता आदि की भावना भी रूप होकर मन में उठती है। किसी की दयाशीलता या क्रूरता की भावना करते समय दया या क्रूरता के किसी विशेष व्यापार या दृश्य का मानसिक चिन्न ही मन में रहता है, जिसके अनुसार भावना तीव्र या मंद होती है। तात्पर्य यह किं मानसिक रूपविधान का नाम ही संभावना या कल्पना है । | मन के भीतर यह रूप विधान दो तरह का होता है । या तो यह कभी प्रत्यक्ष देखी हुई वस्तुओं का ज्यों का त्यों प्रतिबिंब होता है अथवा प्रत्यक्ष देखे हुए पदार्थों के रूप, रंग, गति आदि के आधार पर खड़ा किया हुआ नया वस्तु-व्यापार-विधान । प्रथम प्रकार की आभ्यंतर रूप-प्रतीति स्मृति कहलाती हैं और द्वितीय प्रकार की रूप-योजना या मूर्ति-विधान को कल्पना कहते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों प्रकार के भीतरी स्पविधानों के मूल हैं प्रत्यक्ष अनुभव किए हुए बाहरी रूप-विधान् । अतः रूप-विधान तीन प्रकार के हुए| १ प्रत्यक्ष रूप-विधान २ स्मृत रूप-विधान और ३ संभावित या कल्पित रूप-विधान । इन तीनों प्रकार के रूप-विधानों में भावों को इस रूप में जागरित करने की शक्ति होती है कि वे रस-कोटि में आ सके, यही हमारा पक्ष है। संभावित या कल्पित रूप-विधान द्वारा जागरित मार्मिक अनुभूति तो सर्वत्र काव्यानुभूति या रसानुभूति मानी जाती है। प्रत्यक्ष या स्मरण द्वारा जागरित वास्तविक अनुभूति भी विशेष दशाओं में रसानुभूति की कोटि में आ सकती है, यहाँ पर इमें यही दिखाना है।