पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२७६

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प्रत्यक्ष रूप-विधान २६३ पन में मैं यहीं समझता था कि रात बोल रही है। कवियों ने कलियों के चटकने तक के शब्द का उल्लेख किया है । ऊपर गिनाए हुए तीन प्रकार के रूप-विधानों में से अंतिम ( कल्पित ) ही काव्य-समीक्षकों और साहित्य-मीमांसकों के विचार-क्षेत्र के भीतर लिए गए हैं और लिए जाते हैं। बात यह है कि काव्य शब्द-व्यापार है। वह शब्द-संकेतों के द्वारा ही अंतस में वस्तुओं और व्यापारों का मूर्ति-विधान करने का प्रयत्न करता है। अतः जहाँ तक काव्य की प्रक्रिया का संबंध है वहाँ तक रूप और व्यापार कल्पित ही होते हैं। कवि जिन वस्तुओं और व्यापारों का वर्णन करने बैठता है वे उस समय उसके सामने नहीं होते, कल्पना में ही होते हैं। पाठक या श्रोता भी अपनी कल्पना द्वारा ही उनका मानस साक्षात्कार करके उनके अलंबन से अनेक प्रकार के रसानुभव करता है। ऐसी दशा में यह स्वाभाविक था कि कवि-कर्म का निरूपण करनेवालों का ध्यान रूप-विधान के कल्पना-पक्ष पर ही रहे; रूपों और व्यापारों के प्रत्यक्ष बोध और उससे संबद्ध वास्तविक भावानुभूति की बात अलग ही रखी जाय । उदाहरण के रूप में ऊपर लिखी बात यों कही जा सकती है। एक स्थान पर हमने किसी अत्यंत रूपवती स्त्री का स्मित आनन और चंचल-भ्रूविलोस देखा और मुग्ध हुए अथवा किसी पर्वत के अंचल की सरस सुषमा देख उसमें लीन हुए। इसके १ [ ( क ) मदन-महीप जू को बालक बसंत ताई प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी है। देश । | ( ख ) तुव जस सीतल पौन परसि चटक गुलाब की कलियाँ । -भारतेंदु हरिश्चंद्र ।]