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रस-मीमांसा

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२६३ इस-मीमांसा उपरांत किसी प्रतिमालय और चित्रशाला में पहुँचे और रमणी की वैसी ही मधुर मूर्ति अथवा उसी प्रकार के पर्वतांचल का चित्र देख लुब्ध हुए। फिर एक तीसरे स्थान पर जाकर कविता की कोई पुस्तक उठाई और उसमें वैसी ही नायिका अथवा वैसे ही दृश्य का सरस वर्णन पढ़ रसमग्न हुए। पिछले दो स्थलों की अनुभूतियों को ही कलागत या काव्यगत मान प्रथम प्रकार की ( प्रत्यक्ष या वास्तविक ) अनुभूति का विचार एकदम किनारे रखा गया । यहाँ तक कि प्रथम से शेष दो का कुछ संबंध ही न समझा जाने लगा। कोरे शब्द-व्यवसायी केशवदासजी को कमल और चंद्र को प्रत्यक्ष देखने में कुछ भी आनंद नहीं आता था; केवल काव्यों में उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के अंतर्गत उनका वर्णन चा उल्लेख ही भाता 1 भाता था । *देखे मुख भावै, अनदेखेई कमल-चंद ; | ताते मुख मुखै, सखीं ! कमलौ न चंद री ।' | [ रामचंद्र-चंद्रिका, ६-४३ । ] इतने पर भी उनके कवि होने में कोई संदेह नहीं किया गया ।। यही बात योरप में भी बढ़ती बढ़ती बुरी हुद को पहुँची । कलागत अनुभूति को वास्तविक या प्रत्यक्ष अनुभूति से एकदम पृथक और स्वतंत्र निरूपित करके वहाँ कवि का एक अलग ‘काल्पनिक जगत्' कहा जाने लगा। कला-समीक्षकों की ओर से यह धारणा उत्पन्न की जाने लगी कि जिस प्रकार कवि के ‘काल्पनिक जगतु' के रूप-व्यापारों की संगति प्रत्यक्ष या वास्तविक जगत् के रूप-व्यापारों से मिलाने की आवश्यकता नहीं, उसी प्रकार उसके भीतर व्यंजित अनुभूतियों का सामंजस्य जीवन की वास्तविक अनुभूतियों में ढूँढना अनावश्यक है। इस दृष्टि से