पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२७८

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प्रत्यक्ष रूप-विधान २६५ काव्य का हृदय पर उतना ही और वैसा ही प्रभाव स्वीकार किया गया जितना और जैसा किसी परदे के बेल-बूटे, मकान की नक्काशी, सरकस के तमाशे तथा भाँड़ों की लफ्फाजी, उछल-कूद या रोने-धोने का पड़ता है। इस धारणा के प्रचार से जान में या अनजान में कविता का लक्ष्य बहुत नीचा कर दिया गया । कहीं कहीं तो वह अमीरों के शौक की चीज़ समझी जाने लगी । रसिक और गुण-ग्रक बनने के लिये जिस प्रकार के तरह तरह की नई-पुरानी, भला-बुरी तसबीरें इकट्ठी करते, कलावंतों का गाना-बजाना सुनते, उसी प्रकार कविता की पुस्तकें भी अपने यहाँ सजाकर रखते और कवियों की चर्चा भी दस आदमियों के बीच बैठकर करते। सारांश यह कि 'कला' शब्द के प्रभाव से कविता का स्वरूप तो हुआ सजावट या तमाशा और उद्देश्य हुआ मनोरंजन या मनबहलाव । यह दशा देख कुछ पुराने मनोविज्ञानियों ने भी काव्य द्वारा प्रेरित विविध भावों के संचार को एक प्रकार की कीड़ा-वृत्ति ( play impulse ) ठहराया। युह् 'कला' शब्द आजकल हमारे यहाँ भी साहित्य-चर्चा में बहुत जरूरी सा हो रहा है। इससे न जाने कब पीछा छूटेगा ? हमारे यहाँ के पुराने लोगों ने काव्य को ६४ कलाओं में गिनना ठीक नहीं समझा था। अब यहाँ पर रसात्मक अनुभूति की उस विशेषता का विचार करना चाहिए जो उसे प्रत्यक्ष विषयों की वास्तविक अनुभूति से पृथक् करती प्रतीत हुई है। इस विशेषता का निरूपण हमारे यहाँ साधारणीकरण के अंतर्गत किया गया है। | किसी काव्य का श्रोता या पाठक जिन विषयों को मन में लाकर रति, करुणा, क्रोध, उत्साह इत्यादि भावों तथा सौंदर्य, रहस्य, गांभीर्य आदि भावनाओं का अनुभव करता है वे अकेले