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रस-मीमांसा

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३६६ (स-मीमांसा उसी के हृदय से संबंध रखनेवाले नहीं होते ; मनुष्य-मात्र की भावात्मक सत्ता पर प्रभाव डालनेवाले होते हैं। इसी से उक्त काव्य को एक साथ पढ़ने या सुननेवाले सहस्रों मनुष्य उन्हीं भावों या भावनाओं का थोड़ा या बहुत अनुभव कर सकते हैं। जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलंबन हो सके तब तक उसमें रसोद्बोधन की पूर्ण शक्ति नहीं आतीं । इसी रूप में लाया जाना हमारे यहाँ साधारणीकरण' कहलाता है। यह सिद्धांत यह घोषित करता है कि सच्चा कवि वही हैजिसे लोक-हृदय की पहचान हों, जो अनेक विशेपताओं और विचित्रताओं के बीच से मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को अलग करके देख सके। इसी लोक-हृदय में हृद्य के लीन होने की दशा का नाम रसदशा है ।। आलंबन के जिस साधारणीकरण को ऊपर उल्लेख हुआ है उसका अभिप्राय स्पष्ट हो जाना चाहिए। मेरे विचार में साधारणीकरण प्रभाव का होता है, सत्ता या व्यक्ति का नहीं । जैसे, किसी काव्य में यदि औरंगजेब की घोर निष्ठुरता और क्रूरता पर शिवानी के भीषण क्रोध की व्यंजना हो तो पाठक का रसात्मक क्रोध औरंगजेब नामक व्यक्ति ही पर होगा ; औरंगजेब से अलग क्रूरता की किसो आरोपित सामान्य मूर्ति पर नहीं। रौद्र रस की अनुभूति के समय कल्पना औरंगजेब की ही रहेगी, किसी भी निष्ठुर या क्रूर व्यक्ति की सामान्य और धुंधली भावना नहीं। पाठक या श्रोता के मन में रह रहकर यही आएगा कि औरंगजेब सामने होता तो उसे खूब पोदते । मतलब यह किं भावना व्यक्ति विशेष की ही रहती है ; उसमें प्रतिष्ठा सामान्य स्वरूप की—ऐसे स्वरूप की जो सबके भावों को जग