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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा के अत्याचार की न जाने कितनी कहानियाँ फैलाई गई और उनकी क्रूरता और नृशंसता पर अनेक कविताएँ पत्रिकाओं में इधर उधर निकली थीं जिन्हें पढ़ पढ़कर न जाने कितने अमेरिकन का खून उबल उठा होगा और वे जर्मनी के विरुद्ध युद्ध क्षेत्र में कुदे हेांगे । ऐसी अवस्था में क्या कोई कह सकता है कि इन कविताओं के पाठकों के क्रोध का आलंबन कैंसर विलियम नामक व्यक्ति विशेष और जर्मन नामक जाति विशेष नहीं थी ? क्या उनकी कल्पना में किसी अनिर्दिष्ट अत्याचारी या झरझम का सामान्य रूप ही था ? इमार। निश्चय तो यही है कि अत्याचारी या क्रूरकर्मा का लोक-सामान्य स्वरूप जब कैसर में आरोपित कर दिया गया तव पाठक या श्रोता के क्रोध नामक भाव का आलंबन वही व्यक्ति विशेष हो गया। अतः सिद्धांत यही निकला कि साधारणीकरण स्वरूप का ही होता है, व्यक्ति या वस्तु का नहीं । इस सिद्धांत का पूर्ण सामजस्य उस सिद्धांत के साथ हो जाता हैं। जिसका निरूपण मैं अपने पिछले प्रबंधों में कर चुका हूँ। वह सिद्धांत यह है कि मन में आलंबनों को मार्मिक ग्रहण बिंब-ग्रहण के रूप में होता है; केवल अर्थ-ग्रहण के रूप में नहीं। | इस प्रकार ‘साधारणीकरण' का अभिप्राय यह है कि किसी काव्य में वर्णित आलंबन केवल भाव की व्यंजना करनेवाले पात्र ( आश्रय ) का ही आलंबन नहीं रहता बल्कि पाठक या श्रोता का भी एक ही नहीं अनेक पाठकों और श्रोताओं का भीआलंबन हो जाता है। अतः उस आलंबन के प्रति व्यजित भाव में पाठकों या ओताओं का भी हृदय योग देता हुआ उसी भाब १ [ देखिए चिंतामणि, दुसरा भाग, काव्य में प्राकृतिक दृश्य, पृष्ठ १-२ ।]