पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२८२

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प्रत्यत्र रूप-विधान २६६ का रसात्मक अनुभव करता है। तात्पर्य यह कि रसदशा में अपनी पृथक् सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है अर्थात् काव्य में प्रस्तुत विषय को हम अपने व्यक्तित्व से संबद्ध रूप में नहीं देखते, अपनी योगक्षेम-वासना की उपाधि से ग्रस्त हृदय द्वारा ग्रहण नहीं करते ; बल्कि निर्विशेष, शुद्ध और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते हैं । इसी को पाश्चात्य समीक्षा-पद्धति में अहं का विसर्जन और निःसंगता ( Impersonality and Detachment) कहते हैं । इसी को चाहे रस का लोकोत्तरत्व या ब्रह्मानंदसहोदरत्व कहिए, चाहे विभावन-व्यापार का अलौकिकत्व ।। अलौकिकत्व का अभिप्राय इस लोक से संबंध न रखनेवाली कोई स्वर्गीय विभूति नहीं। इस प्रकार के केवल भाव-व्यंजक ( तथ्यबोधक नहीं ) और स्तुति-परफ शब्दों को समीक्षा के क्षेत्र में घसीटकर पश्चिम में इधर अनेक प्रकार के अर्थशून्य वागाडंबर खड़े किए गए थे। ‘कला कला के लिये' नामक सिद्धांत के प्रसिद्ध व्याख्याकार डाक्टर त्रैडले बोले “काव्य आत्मा है। डा० मकेल साहब ने फरमाया काव्य एक अखंड तत्त्व या शक्ति है जिसकी गति अमर है वंगभाषा के प्रसाद से हिंदी में भी इस प्रकार के अनेक मधुर प्रलाप सुनाई पड़ा करते हैं। | अब प्रस्तुत विषय पर आते हैं। हमारा कहना यह है कि जिस प्रकार काव्य में वर्णित आलंबनों के कल्पना में उपस्थित होने पर साधारणीकरण होता है, उसी प्रकार हमारे भावों के कुछ आलंबनों के प्रत्यक्ष सामने आने पर भी उन आलंबनों के

  • Poetry is a Spirit.--Bradley.

Poetry is a continuous substance whose progress is immortal-Mackail. or energy