पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२८६

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प्रत्यक्ष रूप-विधान

. क्रोध, भय, जुगुप्सा और करुणा के संबंध में साहित्यप्रेमियों को शायद कुछ अड़चल दिखाई पड़े क्योंकि इनकी वास्तविक अनुभूति दुःखात्मक होती हैं। रसास्वाद आनंद-स्वरूप कहा गया है, अतः दुःखरूप अनुभूति रस के अंतर्गत कैसे ली जा सकती है, यह प्रश्न कुछ गड़बड़ छालता दिखाई पड़ेगा। पर 'आनंद' शब्द. को व्यक्तिगत सुखभोग के स्थूल अर्थ में ग्रहण करना मुझे ठीक नहीं हुँचता। उसका अर्थ मैं हृदय का व्यक्तिबद्ध दशा से मुक्त और हलका होकर अपनी क्रिया में तत्पर होना ही उपयुक्त समझता हूँ। इस दशा की प्राप्ति के लिये समय समय पर प्रवृत्ति होना कोई आश्चर्य की बात नहीं । करुण-रस-प्रधान नाटक के दर्शकों के असुओं के संबंध में यह कहना कि “आनंद में भी तो आँसू श्राते हैं केवल बात टालना है। दर्शक वास्तव में दुःख ही का अनुभव करते हैं। हृदय की मुक्त दशा में होने के कारण वह् दुःख भी रसात्मक होता है।

अब क्रोध आदि को अलग अलग देखिए। यदि हमारे मन में किसी ऐसे के प्रति क्रोध है जिसने हमें या हमारे किसी संबंधी । को पीड़ा पहुँचाई है तो उस क्रोध में रसात्मकता न होगी। पर किसी लोकपीड़क या क्रूरकर्मा अत्याचारों को देख सुनकर जिस क्रोध का संचार हममें होगा वह रसकोटि का होगा जिसमें प्रायः सब लोग योग देंगे। इसी प्रकार यदि किसी झाड़ी से शेर निकलता देख हम भय से काँपने लगें तो यह भय हमारे व्यक्तित्व से इतना अधिक संबद्ध रहेगा कि आलंबन के पूर्ण स्वरूप-महण का अवकाश न होगा और हमारा ध्यान अपनी ही मृत्यु, पीड़ा आदि परिणामों की ओर रहेगा। पर जब हम किसी वस्तु की भयंकरता को, अपना ध्यान : छोड़, लोक से संबद्ध देखेंगे तव हम रसभूमि की सीमा के भीतर पहुँचे रहेंगे। इसी