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रस-मीमांसा

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२४ रंस-मीमांसा प्रकार किसी सड़ी गली दुर्गंधयुक्त वस्तु के प्रत्यक्ष सामने आने पर हमारी संवेदना का जो क्षोभ-पूर्ण संकोच होगा वह तो स्थूल होगा; पर किसी ऐसे घृणित आचरणवाले के प्रति जिसे देखते ही लोक-रुचि के विघात या आकुलता की भावना हमारे मन में होगी, इमारी जुगुप्सा रसमयी होगी । । “शोक' को लेकर विचार करने पर हमारा पक्ष बहुत स्पष्ट हो जाता हैं। अपनी इष्टहानि या अनिष्ट-प्राप्ति से जो शोक' नामक वास्तविक दुःख होता है वह तो रसकोटि में नहीं आता, पर दूसरों की पीड़ा, वेदना देख जो ‘करुणा जगती है उसके अनुभूति सच्ची रसानुभूति कही जा सकती है। दूसरों से तात्पर्य ऐसे प्राणियों से हैं जिनसे हमारा कोई विशेष संबंध नहीं । ‘शोक' अपनी निज की इष्ट-हानि पर होता है और करुणा' दूसरों की दुर्गति या पीड़ा पर होती हैं। यही दोनों में अंतर है। इस अंतर को लक्ष्य करके काव्यगत पात्र ( आश्रय ) के शोक की पूर्ण व्यंजना द्वारा उत्पन्न अनुभूति को आचार्यों ने शोक-रस न कहकर ‘करुण-रस' कहा है। करुणा ही एक ऐसा व्यापक भाव है। जिसकी प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति सब रूपों में और सब दशाओं में रसत्मिक होती है। इसी से भवभूति ने करुण रस को ही रसानुभूति का मूल माना और अंगरेज कवि शेली ने कहा कि “सबसे मधुर या रसमयी वाग्धारा वही है जो करुण प्रसंग लेकर चने । | अब प्रकृति के नाना रूपों पर आइए । अनेक प्रकार के १ श्लोक के लिये देखिए ऊपर पृष्ठ ६७, पद-टिपगी।] २ [ अवर स्वीटेस्ट साँगस् र दोन दैट टेल ऑम् सैटेस्ट थाँट-टु ५ स्काइलाके से उद्धत । ]