पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२८८

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प्रत्यक्ष रूप-विधान २७५ प्राकृतिक दृश्यों को सामने प्रत्यक्ष देख हम जिस मधुर भावना का अनुभव करते हैं क्या उसे रसात्मक न मानना चाहिए ? जिस समय दूर तक फैले हरे-भरे टीलों के बीच से घूम घूम कर बहते हुए स्वच्छ नालों, इधर उधर उभरी हुई बेडौल चट्टानों और रंग-बिरंगे फूलों से गुछी हुई झाड़ियों की रमणीयता में हमारा मन रमा रहता है, उस समय स्वार्थमय जीवन की शुष्कता और विरसता से हमारा मन कितनी दूर रहता है । यह रसदशा नहीं तो और क्या है ? उस समय हम विश्व-काव्य के एक पृष्ठ के पाठक के रूप में रहते हैं। इस अनंत दृश्य-काव्य के इम सदा कठपुतली की तरह काम करनेवाले अभिनेता ही नहीं बने रहते, कभी कभी सहृदय दुर्शक की हैसियत को भी पहुँच जाते हैं। जो इस दशा को नहीं पहुँचते उनका हृदय बहुत संकुचित या निम्न कोटि का होता है। कविता उनसे बहुत दूर की वस्तु होती है; कवि वे भले हो समझे जाते हों। शब्द-काव्य की सिद्धि के लिये वस्तु-काव्य का अनुशीलन परम आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध हैं कि 'रसानुभूति प्रत्यक्ष या वास्तविक अनुभूति से सर्वथा पृथक् कोई अंतर्वृत्ति नहीं है बल्कि उसी का एक उदात्त और अवदात स्वरूप है। हमारे यहाँ के आचार्यों ने स्पष्ट सूचित कर दिया है कि वासना रूप में स्थित भाव ही रसरूप में जगा करते हैं। यह वासना या संस्कार वंशानुक्रम से चली आती हुई दीर्घ भाव-परंपरा का मनुष्य जा त की अंतःप्रकृति में निहित संचय है।