पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२८९

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| स्मृत रूप विधान । जिस प्रकार हमारी आँखों के सामने आए हुए कुछ रूपव्यापार में रसात्मक भावों में मग्न करते हैं उसी प्रकार भूतकाल में प्रत्यक्ष की हुई कुछ परोक्ष वस्तुओं का वास्तविक स्मरण भी कभी कभी रसात्मक होता है । जब हम जन्मभूमि या स्वदेश का, बाल-सखाओं का, कुमार-अवस्था के अतीत दृश्यों और परिचित स्थानों आदि का स्मरण करते हैं, तब हमारी मनोवृत्ति स्वार्थ या शरोर-यात्रा के रूखे विधानों से हटकर शुद्ध भाव-क्षेत्र में स्थित हो जाती है। नीति-कुशल लोग लाख कहा करें कि “बीती ताहि बिसारि दे", "गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ ? पर मन नहीं बानता, अतीत के मधुस्रोत में कभी कभी अवगाहन किया ही करता है। ऐसा ‘स्मरण' वास्तविक होने पर भी रसात्मक होता है । हम सचमुच स्मरण करते हैं और रसमस होते हैं। | स्मृति दो प्रकार की होती हैं--( क ) विशुद्ध स्मृति और (ख) प्रत्यक्षाश्रित [ मिश्रित ] स्मृति या प्रत्यभिज्ञान ।। ३ [ भिलाए ‘शेष स्मृतियाँ', प्रवेशिका, पृष्ठ ३ ।]