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रस-मीमांसा

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२८ रस मीमांसा देखा जाता है। जिन व्यक्तियों की ओर हम कभी विशेष रूप से आकर्षित नहीं हुए थे, यहाँ तक कि जिनसे हम चिढ़ते या लड़ते झगड़ते थे, देश या काल का लंबा व्यवधान पड़ जाने पर हम उनका स्मरण प्रेम के साथ करते हैं। इसी प्रकार जिन वस्तुओं पर आते जाते केवल इमारी नजर पड़ा करती थी, जिनको सामने पाकर हम किसी विशेष भाव का अनुभव नहीं करते थे, वे भी हमारी स्मृति में मधु में लिपटी हुई आती हैं। इस माधुर्य का रहस्य क्या है ? जो हो, हमें तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि हमारी यह काल-यात्रा, जिसे जीवन कहते हैं, जिन जिन रूपों के बीच से होती चली आती है, हमारा हृदय उन सबको पास समेटकर अपनी रागात्मक सत्ता के अंतर्भूत करने का प्रयत्न करता है । यहाँ से वहाँ तक वह एक भावसत्ता की प्रतिष्ठा चाहता है। ज्ञानप्रसार के साथ साथ रागात्मिका वृत्ति का यह प्रसार एकीकरण या समन्विति की एक प्रक्रिया हैं। ज्ञान हमारी आत्मा के तटस्थ (Transcendent ) स्वरूप का संकेत है; रागात्मक हृदय उसके व्यापक। Immanent ) वरूप का । ज्ञान ब्रह्म है तो हृदय ईश्वर है। किसी व्यक्ति या वस्तु को जानना ही वह शक्ति नहीं है। जो उस व्यक्ति या वस्तु को हमारी अंतस्सत्ता में संमितित कर दे। वृह शक्ति हैं राग या प्रेम। जैसा कइ आए हैं, रति, हास और करुणा से संबद्ध स्मरण ही अधिकतर रसक्षेत्र में प्रवेश करता है। प्रिय का स्मरण, बालसखाओं का स्मरण, अतीत-जीवन के दृश्यों का स्मरण प्रायः रतिभाव से संबद्ध स्मरण होता है। किसी दीन दुखी या पीड़ित व्यक्ति के, उसकी विवर्ण आकृति, चेष्टा आदि के स्मरण का लगाव करुणा से होता है। दूसरे भावों के आलंबनों का स्मरण भी कभी कभी रस-सिक्त होता है पर वहीं जहाँ हम सहृदय