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रस-मीमांसा

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२८३ रस-मीमांसा पहले हम मृत्याभास कल्पना के उस स्वरूप को लेते हैं। जिसका आधार प्राप्त शब्द या इतिहास होता है। जैसे अपने व्यक्तिगत अतीत जीवन की मधुर स्मृति मनुष्य में होती है वैसे ही समष्टि रूप में अतीत नर-जीवन की भी एक प्रकार की स्मृत्याभास कल्पना होती है जो इतिहास के संकेत पर जगती है। इसकी मार्मिकता भी निज के अतीत जीवन की स्मृति की मार्मि कता के ही समान होती है। मानव-जीवन की चिरकाल से चली • आती हुई अखंड परंपरा के साथ तादात्म्य की यह भावना आत्मा के शुद्ध स्वरूप की नित्यता, अखंडता और व्यापकता का आभास देती है। यह स्मृति-स्वरूपा कल्पना कभी कभी प्रत्यभिज्ञान का भी रूप धारण करती है। प्रसंग उठने पर जैसे इतिहास द्वारा ज्ञात किसी घटना या दृश्य के ब्योरों को कहीं बैठे-बैठे हुम मन में लाया करते हैं और कभी कभी उनमें लीन हो जाते हैं वैसे ही किसी इतिहास-प्रसिद्ध स्थल पर पहुँचने पर हमारी कल्पना चट उन स्थल पर घटित किसी मार्मिक पुरानी घटना अथवा उससे संबंध रखनेवाले कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के बीच हमें पहुँचा देती है, जहाँ से हम फिर वर्तमान की ओर लौटकर कहने लगते हैं कि “यह वही रथल है जो कभी सजावट से जगमगाता था, जहाँ अमुक सम्राट सभासदों के बीच सिंहासन पर विराजते थे ; यह वही फाटक है जिस पर ये ये वीर अद्भुत पराक्रम के साथ लड़े थे इत्यादि । इस प्रकार हम उस काल से लेकर इस काल तक अपनी सत्ता के प्रसार का आरोप क्या, अनुभव करते हैं। | सूक्ष्म ऐतिहासिक अध्ययन के साथ साथ जिसमें जितनी ही गहरी भावुकता होगी, जितनी ही तत्पर कल्पना-शक्ति होगी उसके २ [ मिलाइए ‘शेष स्मृतियाँ', प्रवेशकि, पृष्ठ ४ ।]