पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२९६

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स्मृत रूप-विधान २८३ मन मैं उतने ही अधिक व्योरे आएँगे और पूर्ण चिन्न खड़ा होगा । इतिहास का कोई भावुक और कल्पना संपन्न पाठक यदि पुरानी दिल्ली, कन्नौज, थानेसर, चित्तौड़, उज्जयिनी, विदिशा इत्यादि के खंडहरों पर पहले पहल भी जा खड़ा होता है तो उसका मन में वे सब बातें आ जाती हैं जिन्हें उसने इतिहास में पढ़ा था या लोगों से सुना था। यदि उसकी कल्पना तीव्र और प्रचुर हुई तो बड़े बड़े तोरणों से युक्त उन्नत प्रासादों की, उत्तरीय और उष्णीषधारी नागरिकों की, अलक्तरंजित चरणों में पड़े हुए नूपुरों की झंकार की, कटि के नीचे लटकती हुई कांची की लड़ियों की, धूप-वासित केश-कलाप और पुत्रभंग-मंडित गंडस्थल की भावना उसके मन में चित्र सी खड़ी होगी । उक्त नगरों का यह रूप उसने कभी देखा नहीं है, पर पुस्तकों के पठन-पाठन से इस रूप की कल्पना उसके भीतर संस्कार के रूप में जम गई हैं जो उन नगरों के ध्वंसावशेष के प्रत्यक्ष दर्शन से जग जाती है । एक बात कह देना आवश्यक है कि आप्त वचन या इतिहास के संकेत पर चलनेवाली कल्पना या मूर्त भावना अनुमान का भी सहारा लेती है। किसी घटना का वर्णन करने में इतिहास उस घटना के समय की रीति, वेश-भूषा, संस्कृति आदि का ब्योरा नहीं देता चलता । अतः किसी ऐतिहासिक काल का कोई चित्र मन में लाते समय ऐसे ब्योरों के लिये अपनी जानकारी के अनुसार इमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है। यह तो हुई आप्त शब्द या इतिहास पर आश्रित स्मृति-रूपा या प्रत्यभिज्ञान-रूपा कल्पना। एक प्रकार की प्रत्यभिज्ञान-रूपा कल्पना और होती है जो बिल्कुल अनुमान के ही सहारे पर खड़ी ३ [मिलाइए चिंतामणि, दूसरा भाग, पृष्ठ ४७ और ऊपर १५५ । ]: