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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा होती और चलती है। यदि हम एकाएक किसी अपरिचित स्थान के बँड़हरों में पहुँच जाते हैं जिसके संबंध में हमने कहीं कुछ सुना या पढ़ा नहीं हैं तो भी गिरे पड़े मकानों, दीवारों, देवालयों आदि को सामने पाकर हम कभी कभी कह बैठते हैं कि "यह वही स्थान है जहाँ कभी मित्रों की मंडली जमती थी, रमणियों का हास-विलास होता था, बालकों का क्रीड़ा-रव सुनाई पड़ता था इत्यादि ।१ कुछ चिह्न पाकर केवल अनुमान के संकेत पर ही कल्पना इन रूपों और व्यापारों की योजना में तत्पर हो गई । ये रूप और व्यापार हमारे जिस मार्मिक रागात्मक भाव के आलंबन होते हैं उसका हमारे व्यक्तिगत योग-क्षेम से कोई संबंध नहीं अत: उसकी रसात्मकता स्पष्ट हैं। अतीत की स्मृति में मनुष्य के लिये स्वाभाविक आकर्पण हैं। अर्थ-परायण लाख कहा करें कि 'गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा', पर हृदय नहीं मानता : बार बार अतीत की ओर जाया करता है। अपनी यह बुरी आदत नहीं छोड़ता। इसमें कुछ रहस्य अवश्य है। हृद्य के लिये अतीत एक मुक्ति-लोक है जहाँ वह अनेक प्रकार के बंधनों से छूटा रहता है और अपने शुद्ध रूप में विचरता है। वर्तमान में अंधा बनाए रहता है; अतीत बीच बीच में हमारी आँखें खोलता रहता है। मैं तो समझता हूँ कि जीवन का नित्य स्वरूप दिखानेवाला दर्पण मनुष्य के पीछे रहता है; आगे तो बराबर खिसकता हुआ दुर्भेद्य परदा रहता है। बीती बिसारनेवाले ‘आगे की सुध रखने का दावा किया करें, परिणाम अशांति के अतिरिक्त और कुछ नहीं । वर्तमान को सँभालने और आगे की सुध रखने का डंका पीटनेवाले संसार में जितने ही | १ [मिलाइए ‘शेष स्मृतियाँ, पृष्ठ ५।]