पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२९८

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प्रत्यक्षं रूप-विधान अधिक होते जाते हैं, संघ-शक्ति के प्रभाव से जीवन की उलझनें उतनी ही बढ़ती जाती हैं। बीती विसारने का अभिप्राय हे जीवन की अखंडता और व्यापकता की अनुभूति का विसर्जन; सहृदयता और भावुकता का भंग-केवल अर्थ की निष्ठुर क्रीड़ा। कुशल यही है कि जिनका दिल सही-सलामत है, जिनका हृदय मारा नहीं गया है, उनकी दृष्टि अतीत की ओर जाती है । क्यों जाती है, क्या करने जाती है, यह बताते नहीं बनता । अतीत कल्पना का लोक है, एक प्रकार का स्वप्न-लोक है, इसमें तो संदेह नहीं । अतः यदि कल्पना-लोक के सब खंडों को सुखपूर्ण मान लें तब तो प्रश्न टेढ़ा नहीं रह जाता ; झट से यह कहा जा सकता है कि वह सुख प्राप्त करने जाती है। पर क्या ऐसा माना जा सकता है ? हमारी समझ में अतीत की ओर मुड़ मुड़कर देखने की प्रवृत्ति सुख-दुख की भावना से परे है। स्मृतियाँ हमें केवल सुख-पूर्ण दिनों की झाँकियाँ नहीं समझ पड़तीं । वे हमें लीन करती हैं, हमारा मर्मस्पर्श करती हैं, बस इतना ही हम कह सकते हैं। यही बात स्मृत्याभास कल्पना के संबंध में भी समझनी चाहिए । इतिहास द्वारा ज्ञात बातों की मूर्त भावना कितनी मार्मिक, कितनी लीन करनेवाली होती है, न सहृदयों से छिपा है, न छिपाते बनता है। मनुष्य की अंतःप्रकृति पर इसका प्रभाव स्पष्ट हैं। जैसा कि कहा जा चुका है इसमें स्मृति की सी सजीवता होती है। इस मार्मिक प्रभाव और सजीवता का मूल है सत्य। सत्य से अनुप्राणित होने के कारण ही कल्पना स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का सा रूप धारण करती है। कल्पना के इस स्वरूप की सत्य-मूलक सजीवता और मार्मिकता का अनुभव. १ [ मिलाइए, वही, पृष्ठ ३-४ ] . . ?