पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३००

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स्मृत रूपविधान मनुष्य की ऐश्वर्य, विभूति, सुख, सौंदर्य की वासना अभिव्यक्त होकर जगत् के किसी छोदे या बड़े खंड को अपने रंग में रंगकर मानुषी सजीवता प्रदान करती है। देखते देखते काल उस वासना के आश्रय मनुष्यों को ढाकर किनारे कर देता है। धीरे धीरे उनका चढ़ाया हुआ ऐश्वर्य-विभूति का वह रंग भी मिटता जाता है। जो कुछ शेष रह जाता है वह बहुत दिनों तक इंटपत्थर की भाषा में एक पुरानी कहानी कहता रहता है। संसार का पथिक मनुष्य उसे अपनी कहानी समझकर सुनता है, क्योंकि उसके भीतर झलकता है जीवन का नित्य और प्रकृत स्वरूप । कुछ व्यक्तियों के स्मारक चिह्न तो उनके पूरे प्रतिनिधि या अतीक बन जाते हैं और उसी प्रकार हमारी घृणा या प्रेम के आलंबन हो जाते हैं जिस प्रकार लोक के बीच अपने जीवनकाल में वै व्यक्ति थे। ऐसे व्यक्ति घृणा या प्रेम को अपने पीछे भी बहुत दिनों तक जगत् में जगाते रहते हैं। ये स्मारक न जाने कितनी बातें अपने पेट में लिए कहीं खड़े, कहीं बैठे, कहीं पड़े हैं । किसी अतीत जीवन के ये स्मारक या तो यों ही–शायद काल की कृपा से -बने रह जाते हैं अथवा जान बूझकर छोड़े जाते हैं। जान-बूझकर कुछ स्मारक छोड़ जाने की कामना भी मनुष्य की प्रकृति के अंतर्गत है। अपनी सत्ता के सर्वथा लोप की भावना मनुष्य को असह्य हैं। अपनी भौतिक सत्ता तो वह बनाए नहीं रख सकता । अतः वह चाहता है कि उस सत्ता की स्मृति ही किसी जन-समुदाय के बीच बनी रहे। बाह्य जगत् में नहीं तो अंतर्जगत् के किसी खंड में ही वह बना रहना चाहता हैं। इसे १ [ भिलाइए वही, पृष्ठ ७५] ।