पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

स्मृत रूप-विधान २८ भावुक जिस भाव-धारा में डूबता है उसी में औरों को डुबाने के निये शब्द-स्रोत भी बहाता है। इस पुनीत भावधारा में अवगाहन करने से वर्तमान की-अपने पराए की—लगी-लिपटो मैल छूटती हैं और हृदय स्वच्छ होता है। ऐतिहासिक व्यक्तियों या राजकुलों के जीवन की जिन विषमताओं की ओर सबसे अधिक ध्यान जाता हैं वे प्रायः दो ढंग की होती हैं—सुख-दुःख-संबंधिनी तथा उत्थान-पतन-संबंधिनी । सुख-दुःख की विषमता की ओर जिसकी भावना प्रवृत्त होगी वह एक ओर तो जीवन की भौगपक्ष-यौवन-मद्, विलास की प्रभूत सामग्री, कला-सौंदर्य की जगमगाइद, राग-रंग और आमोद-प्रमोद की चहल-पहल और दूसरी ओर अवसाद, नैराश्य, कष्ट, वेदना इत्यादि के दृश्य मन में लाएगा। बड़े बड़े प्रतापी सम्राटों के जीवन को लेकर भी वह ऐसा ही करेगा। उनके तेज, प्रताप, पराक्रम इत्यादि की भावना वह इतिहास-विज्ञ पाठक की सहृदयता पर छोड़ देगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि सुख और दुःख के बीच का वैषम्य जैसा मार्मिक होता है वैसा ही उन्नति और अवनति, प्रताप और हास के बीच का भी । इस वैषम्य-प्रदर्शन के लिये एक ओर तो किसी के पतन-काल के असामर्थ्य, दीनता, विवशता, उदासीनता इत्यादि के दृश्य सामने रखे जाते हैं, दूसरी ओर उसके ऐश्वर्यकाल के प्रताप, तेज, पराक्रम इत्यादि के वृत्त स्मरण किए जाते हैं। इस दुःखमय संसार में सुख की इच्छा और प्रयत्न प्राणियों का लक्षण है। यह लक्षण मनुष्य में सबसे अधिक रूपों में विकसित हुआ है। मनुष्य की सुखेच्छा कितनी प्रबल, कितनी १ [ वही पृष्ठ १.१०।]