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रस-मीमांसा

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२६• रस-मीमांसा शक्तिशालिनी निकली ! न जाने कब से वह प्रकृति को काटन छाँटती, संसार को काया-पज़द करती चली आ रही है। वह . शायद् अनंत है, 'आनंद' का अनंत प्रतीक है। वह इस संसार में न समा सकी तबै कल्पना को साथ लेकर उसने कहाँ बहुत दूर स्वर्ग की रचना की ।. चतुर्वर्ग में इसी सुख का नाम ‘काम’ है। यद्यपि देखने में ‘अर्थ’ और ‘काम’ अलग अलग दिखाई पड़ते हैं, पर सच पूछिए तो ‘अर्थ’ ‘काम’ का ही एक साधन ठरता है, साध्य रहता है काम या सुख ही। अर्थ है संचय, आयोजन और तैयारी की भूमि ; काम भोग-भूमि है। मनुष्य कभी अर्थ भूमि पर रहता है. कभी काम-भूमि पर। अर्थ और काम के बीच जीवन बाँटता हुआ वह चला चलता है। दोनों का ठीक सामंजस्य सफल जीवन का लक्षण है। जो अनन्य भाव से अर्थ-साधना में ही लीन रहेगा वह् हृद्य खो देगा ; जो अखि मूंदकर कामचर्या में ही लिप्त रहेगा वह किसी अर्थ का न रहेगा। अकबर के जीवन में अर्थं और काम का सामंजस्य रहा । औरंगजेब बराबर अर्थभूमि पर हो रहा । मुहम्मदशाह सदा काम-भूमि पर ही रह कर रंग बरसाते रहे । १ [वही, पृष्ठ १२-१३ : ]