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रस-मीमांसा

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२६२ रस-मीमांसा सारा रूप-विधान कल्पना ही करती है अतः अनुभाव कहे जानेवाले व्यापारों और चेष्टाओं द्वारा आश्रय को जो रूप दिया जाता है वह भी कल्पना ही द्वारा । पर भावों के द्योतक शारीरिक व्यापार या चेष्टाएँ परिमित होती हैं, वे रूढ़ या बँधी हुई होती : हैं। उनमें नयेपन की गुजाइश नहीं, पर आश्रय के वचनों की अनेकरूपता की कोई सोमा नहीं । इन वचनों की भी कवि द्वारा कल्पना ही की जाती है । | वचनों द्वारा भाव-व्यंजना के क्षेत्र में कल्पना को पूरी स्वच्छ दता रहती है। भाव की ऊँचाई, गहराई की कोई सीमा नहीं। उसका प्रसार लोक का अतिक्रमण कर सकता है। उसकी सम्यक् व्यंजना के लिये प्रकृति के वास्तविक विधान कभी कभी पर्याप्त नहीं जान पड़ते । मन की गति का वेग अबाध होता है। प्रेम के वैग में प्रेमी प्रिय को अपनी आँखों मैं बसा हुआ कहता है, उसके पाँव रखने के लिये पलकों के पावड़े बिछाता है, उसके अभाव में दिन के प्रकाश में भी चारों ओर शून्य या अंधकार देखता है, अपने शरीर की भस्म उड़ाकर उसके पास तक पहुँचाना चाहता है। इसी प्रकार क्रोध के वेग में मनुष्य शत्रु को पीसकर चटनी बना डालने के लिये खड़ा होता है, उसके घर को खोदकर • तालाब बना डालने की प्रतिज्ञा करता है। उत्साह या वीरता की उमंगों में वह समुद्र पाट देने, पहाड़ों को उखाड़ फेंकने का हौसला प्रकट करता है। | ऐसे लोकोत्तर विधान करनेवाली कल्पना में भी यह देखा जाता है कि जहाँ कार्य-कारण-विवेचन-पूर्वक वस्तु-व्यंजना का टेढ़ा रास्ता पकड़ा जाता है वहाँ वैचित्र्य ही वैचित्र्य रह जाता है, मार्मि-. १ [मिलाइए चिंतामणि, पहला भाग, भाव या मनोविकार, पृष्ठ ४ ।]