पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कृविपत रूप-विधान २६३ कता दब जाती है। जैसे, यदि कोई कहे कि “कृष्ण के वियोग में राधा का दिन-रात रोना सुनकर लोग घर घर में नावे बनवा रहे हैं तो यह कथन मार्मिकता की हद के बाहर जान पड़ेगा। । विभाव-पक्ष के ही अंतर्गत हम उन सब प्रस्तुत वस्तुओं और व्यापारों को भी लेते हैं जो हमारे मन में सौंदर्य, माधुर्य, दीप्ति, कांति, प्रताप, ऐश्वर्य, विभूति इत्यादि की भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। ऐसी वस्तुओं और व्यापारों की योजना करनेवाली प्रतिभा भी विभाव-विधायिनी ही समझनी चाहिए । कवि कभी-कभी सौंदर्य, माधुर्य, दीप्ति इत्यादि की अनूठी सृष्टि खड़ी करने के लिये चारों ओर से सामग्री एकत्र करके पराकाष्ठा को पहुँची हुई लोकोत्तर योजना करते हैं। यह भी कविकर्म के अंतर्गत है, पर सर्वत्र अपेक्षित उसकी कोई नित्य प्रक्रिया नहीं । मन के भीतर लोकोत्तर उत्कर्ष की झाँकियाँ तैयार करना भी कल्पना का एक काम हैं । इस काम में कविता उसे प्रायः लगाया करती है। कुछ लोग तो कल्पना और कविता का यही काम ही बताते हैं-ख़ास कर वे लोग जो काव्य को स्वप्न का सगा भाई मानते हैं। जैसे स्वप्न को बे" अंतस्संज्ञा में निहित अतृप्त वासनाओं की अंत व्यंजना कहते हैं, वैसे ही काव्य को भी। संसार में जितना अद्भुत, सुंदर, मधुर, दीप्त हमारे सामने आता है; जितना सुख, समृद्धि, सद्वृत्ति, सद्भाव, प्रेम, आनंद हमें दिखाई पड़ता है उतने से तृप्त न होने के कारण अधिक की इच्छाएँ हमारी अंतस्संज्ञा में दबी पड़ी रहती हैं। इसी प्रकार शक्ति, उग्रता, प्रचंडता, उथलपुथल, ध्वंस इत्यादि को हम जितने बढ़-चढ़े रूप में देखना चाहते हैं उतने बढ़-चढ़ रूपों में कहीं न देख इमारी इच्छा चेतना या १ [ फ्रायड आदि नतन मनोवैज्ञानिक । ]