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रस-मीमांसा

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२६८ बस-मीमसि। ( ३ ) मर्ग पीड़ा के हसि ।। (४) अहह ! यह मेरा गीला गान । (५) तड़ित सा, सुमुखि ! तुम्हारा ध्यान प्रभा के पलक मुरि, उर चीर गूढ गर्जन कर में गंभीर । () लाज में लिपटी उषा समान । घनानंद की वाग्विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अब ऊपर के उद्धरणों के रेखांकित प्रयोगों की लाक्षणिक प्रक्रिया देखिए ( १ ) धूलि की ढेरी=तुच्छ या असार कहा जानेवाला संसार । मधुमय गान =मधुमय गान के विषय= मधुर और सुंदर वस्तुएँ। (२) कलाएँ किलक रही हैं=जोर से हँस रही हैं = आनंद का प्रकाश कर रही हैं। (३) पीड़ा के हास = पीड़ा का विकास या प्रसार । ( विरोध का चमत्कार ) (४) गीला गान= आई हृदय या अश्रुपूर्ण व्यक्ति की वाणी । ( सामान्य कथन में जो गुण व्यक्ति का कहा जाता है वह गान का कहा गया ; (विशेषण-विपर्यय) । (५) प्रभा के पलक मार= पल पल पर चमककर। गूढ गर्जन = छिपी हुई हृदय की धड़कन (६) ताज= लज्जा से उत्पन्न ललाई।। | इन प्रयोगों का आधार या तो किसी न किसी प्रकार की साम्य-भावना है अथवा किसी वस्तु का उपलक्षण या प्रतीक के रूप में ग्रहण। दोनों बातें कल्पना ही के द्वारा होती हैं। उपलक्षण या प्रतीकों का एक प्रकार का चुनाव है जो मूर्तिमत्ता, मार्मिकता या अतिशय्य आदि की दृष्टि से होता हैं—जैसे, शोक या विषाद के स्थान पर अश्रु, हर्ष और आनंद के स्थान पर