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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा मन में कोई भाव जगाने में समर्थ हो, भाव जगाने में वही रूपयोजना समर्थ होगी जो जगत् या जीवन का कोई गुढ़ या मार्मिक तथ्य सामने लाएगी, जो विश्व के किसी अनुरंजनकारी, क्षोभकारी या विस्मयकारी विधान का चित्र होगी। यदि हम किसी कारखाने की पूरे ब्योरे के साथ वर्णन करें, उसमें मजदूर किस व्यवस्था के साथ क्या क्या काम करते हैं ये सब बातें अच्छी तरह सामने रखें तो ऐसे वर्णन से किसी व्यवसायी का ही काम निकल सकता हैं, काव्यप्रेमी के हृदय पर कोई प्रभाव न होगा। बात यह है कि ये सब विधान जीवन के मूल और सामान्य स्वरूप से बहुत दूर के हैं। पर यदि हम उसी कारखाने के पास बने हुए मजदूरों के झोपड़ों के भीतर के जीवन का चित्रण करें, रोटी के लिये झगड़ते हुए कृशकाय बच्चों पर झल्लाती हुई माँ का दृश्य सामने लाएँ तो कवि-कर्म में हमारे वर्णन का उपयोग हो सकता हैं। अब यहाँ पर काव्य और सभ्यता के संबंध का सवाल सामने आता है। सभ्यता का स्वरूप उत्तरोत्तर बदलता चला आ रहा है । आज से सौ वर्ष पहले उसका जो स्वरूप था वह आज नहीं है, आज जो उसका स्वरूप हैं वह पचास वर्ष पीछे न रहेगा। अब विचारणीय यह है कि क्या कविता को भी सभ्यता का एक अंग होकर आज कुछ और कल कुछ और होते हुए चलना चाहिए अथवा सभ्यता के बाहरी और भीतरी दोनों स्वरूपों को बाह्य आवरण के रूप में रखकर एकरस-धारा के रूप में चलना चाहिए। हमारा कहना है कि दूसरा मार्ग ही सच्ची कविता का मार्ग हो सकता है। सभ्यता के साथ साथ वह चलेगी पर उसी का एक विधान होकर नहों। वह अपनी मूल सत्ता स्वतंत्र रखेगी, किसी काल की सभ्यता की नकल करना, केवल नवीनता दिखाने