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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा रहा है तो श्रोता या दर्शक के मन में क्रोध का रसात्मक संचार न होगा, बल्कि क्रोध प्रदर्शित करनेवाले उस पात्र के प्रति अश्रद्धा, घृणा आदि का भाव जगेगा। ऐसी दशा में आश्रय के साथ तादात्म्य या सहानुभूति न होगी, बल्कि श्रोता या पाठक उक्त पात्र के शील-द्रष्टा या प्रकृति-द्रष्टा के रूप में प्रभाव ग्रहण करेगा और यह प्रभाव भी रसात्मक ही होगा। पर इस रसात्मकता को हम मध्यम कोटि की हीं मानेंगे। | जहाँ पाठक या दर्शक किसी काव्य या नाटक में सन्निविष्ट पात्र या आश्रय के शील-द्रष्टा के रूप में स्थित होता हैं वहाँ भी पाठक या दृशंक के मन में कोई न कोई भाव थोड़ा बहुत अवश्य जगा रहता हैं ; अंतर इतना ही पड़ता हैं कि उन पात्र झा आलंबन पाठक या दर्शक का आलंबन नहीं होता, बल्कि, वह पात्र ही पाठक या दशक के किसी भाव का .आलंबन रहता है। इस दशा में भी एक प्रकार का तादात्म्य और साधारणीकरण होता है। तादात्म्य कवि के उस अव्यक्त भाव के साथ होता है जिसके अनुरूप वह पात्र का स्वरूप संघटित करता है। जो स्वरूप कवि अपनी कल्पना में लाता है उसके प्रति उसका कुछ न कुछ भाव अवश्य रहता है । वह उसके किसी भाव का आलंबन अबश्य होता है। अतः पात्र का स्वरूप कवि के जिस भाव का आलंबन रहता है, पाठक या दर्शक के भी उसी भाव का आलंबन प्रायः हो जाता है। जहाँ कवि किसी वस्तु (जैसे-हिमालय, विंध्याटवी ) या व्यक्ति का केवल चित्रण करके छोड़ देता है। वहाँ कवि ही आश्रय के रूप में रहता है। उस वस्तु या व्यक्ति का चित्रण वह उसके प्रति कोई भाव रखकर ही रहता है। उसी के भाव के साथ पाठक या दर्शक का तादात्म्य रहता है। उसी का आलंबन पाठक या दुर्शक का आलंबन हो जाता है।