पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

प्रस्तुत रूप-विधान ३१५ आश्रय की जिस भाव-व्यंजना को ओता या पाठक का हृदय कुछ भी अपना न सकेगा उसका ग्रहण केवल शील वैचित्र्य के रूप में होगा और उसके द्वारा घृणा, विरक्ति, अश्रद्धा, क्रोध, आश्चर्य, कुतूहल इत्यादि में से ही कोई भाव उत्पन्न होकर अपरितुष्ट दशा में रह जायगा । उस भाव की तुष्टि तभी होगी जब कोई दूसरा पात्र कर उसकी व्यंजना वाणी और चेष्टा द्वारा उस बेमेल या अनुपयुक्त भाव की व्यंजना करने वाले प्रथम पात्र के प्रति करेगा । इस दूसरे पात्र की भावव्यंजना के साथ श्रोता या दृशंक की पूर्ण सहानुभूति होगी। अपरितुष्ट भाव की कुलता का अनुभव प्रबंध-काव्यों, नाटकों और उपन्यासों के प्रत्येक पाठक को थोड़ा-बहुत होगा। जब कोई असामान्य दुष्ट अपनी मनोवृत्ति की व्यंजना किसी स्थल पर करता है तब पाठक के मन में बार बार यही आता है कि उस दुष्ट के प्रति उसके मन में जो घृणा या क्रोध है उसकी भरपूर व्यंजना. वचन या क्रिया द्वारा कोई पात्र आकर करता। क्रोधी परशुराम तथा अत्याचारी रावण की कठोर बातों का जो उत्तर लक्ष्मण और अंगद देते हैं। उससे कथा-श्रोताओं की अपूर्व तुष्टि होती हैं। इस संबंध में सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि शील विशेष के परिज्ञान से उत्पन्न भाव की अनुभूति और आश्रय के साथ तादात्म्य-दशा की अनुभूति ( जिसे आचार्यों ने रस कहा है ) दो भिन्न कोटि की रसानुभूतियाँ हैं। प्रथम में श्रोता या पाठक अपनी पृथक् सत्ता अलग सँभाले रहता हैं; द्वितीय में अपनी पृथक् सत्ता का कुछ क्षणों के लिये विसर्जन कर आश्रय की भावात्मक सत्ता में मिल जाता है। उदात्त वृत्तिवाले आश्रय की भाव व्यंजना में भी यह होगा कि जिस समय तक पाठक या श्रोता तादात्म्य की दशा में पूर्ण रसमग्न रहेगा उस समय तक