पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३१६
रस-मीमांसा

________________

रस-मीमांसा भाव-व्यंजना करनेवाले प्रश्रय को अपने से अलग रखकर उसके शील आदि की ओर दत्तचित्त न रहेगा । उस दशा के आगेपीछे ही वह उसकी भावात्मक सत्ता से अपनी भावात्मक सत्ता को अलग कर उसके शील-सौंदर्य की भावना कर सकेगा। आव: व्यंजना करनेवाले किसी पत्र या आश्रय के शील-सौंदर्य की भावना जिस समय रहेगी उस समय वही श्रोता या पाठक का आलंबन रहेगा और उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति या श्रीति टिकी रहेगी। हमारे यहाँ के आचार्यों ने, श्रव्य-काव्य और दृश्य काव्य दानों में रस की प्रधानता रक्खी है, इसी से दृश्य काव्य में भी उनका लक्ष्य तादात्य और साधारणीकरण की ओर रहता है। पर योरप के दृश्य-काव्यों में शील-वैचित्र्य या अंत:प्रकृति-वैचित्र्य की ओर ही प्रधान लक्ष्य रहता है जिसके साक्षात्कार से दर्शक को आश्चर्य या कुतूहल मात्र को अनुभूति होती है । अतः इस वैचित्र्य पर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। वैचित्र्य के साक्षाकार से केवल तीन बातें हो सकती हैं-- ( १ ) आश्चर्यपूर्ण प्रसादन । ( २ ) आश्चर्यपूर्ण अवसादन । या (३) कुतूहल मात्र ।। अाश्चर्यपूर्ण प्रसादन शील के चरम उत्कर्ष अर्थात् सात्विक आलोक के साक्षात्कार से होता है। भरत का राम की पादुका लेकर विरक्त रूप में बैठना, राजा हरिश्चंद्र का अपनी रानी से ‘आधा कफन माँगना, नागानंद नाटक में जीमूतवाहन का भूखे गरुड़ से अपना मांस खाने के लिये अनुरोध करना इत्यादि शीलवैचित्र्य के ऐसे दृश्य हैं जिनसे श्रोता या दर्शक के हृदय में आश्चर्य-मिश्रित श्रद्धा या भक्ति का संचार होता है। इस प्रकार के उत्कृष्ट शीलवाले पात्रों की भाव-व्यंजना को अपनाकर वह