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रस-मीमांसा

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३२६ रस-मीमांसा भी हैं, पर उनमें दृष्टि का विस्तार, भव्यता का आभास और भाषा की प्रगल्भता अधिक हैं। मूर्तिमत्तावाद ( Imagism ) के प्रवर्तक फ्लिट (F. S. Flint ) थे जिनकी तारक जाल में नाम की पुस्तक सन् १९०६ में प्रकाशित हुई थी। इस संप्रदाय में डुलिल ( Hrida Doolittle H. D.) और अल्डिगटन ( Rechard Aldington ) भी थे, यद्यपि अल्डिगटन धीरे धीरे इसके बाहर निकल आए। इन लोगों का सिद्धांत था मूर्त रूप में ही विषय को रखना, अतः ये छोटी छोटी कविताएँ ही ठीक समझते थे, जिनका चिन्न मन में एक बार में आ सके। बड़ी और लंबी कविताओं के ये विरोधी थे। अपने सिद्धांत के अनुसार ये मूर्त भावना खड़ी करनेवाले (Concrete; शब्द ही कविता के लिये उपयुक्त समझते थे, भाववाचक ( Abstract ) शब्दों को दूर रखने की सलाह देते थे। इनका कहना था कि मूर्त भावना वाले शब्द कल्पना में स्पष्ट और स्थायी रूप-विधान भी करते हैं और सबको समान रूप से बोधगम्य भी होते हैं। वर्णनात्मक ( Descriptive } और विचारात्मक ( Philosophical) कविता का ये विरोध करते थे। इनके सिद्धांत में सत्य का बहुत कुछ आधार था, पर ये उसे बहुत दूर तक घसीट ले गए। | विचार करने पर यह बात साफ सामने आती है कि काव्य चित्र-विद्या और संगीत दोनों की पद्धतियों का कुछ कुछ अनुसरण करता है। विभाव और अनुभाव दोनों में रूप-विधान होता है। जिसका उसी प्रकार कल्पना द्वारा स्पष्ट ग्रहण वांछित होता है। जिस प्रकार नेत्र द्वारा चित्र का। अतः मूर्त भावना की आवश्यकता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। अँगरेजी कविता में मूर्तिमत्तावाद का एक अलग अांदोलन खड़े होने के बहुत पहले ही फ्रांस