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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा मात्र है अर्थ कुछ नहीं । नए पुराने सब कवियों ने व्यापारचित्रण करते समय कहाँ कहीं शब्दों के प्रयोग में नाद की अनुकृति का प्रयत्न किया है। भवभूति के वर्णनों में यह बात कई जगह मिलती है । अंगरेजी कवियों की भी कई पंक्तियाँ इसके लिये प्रसिद्ध हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी के “कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि” में भी झंकार का नाद-चित्र है। पर असल कवियों ने इसका समावेश बड़े कौशल और सफाई के साथ बहुत कम जगह किया है। इसके लिये वे अर्थशक्ति-शून्य शब्द नहीं लाए हैं। पर योरप में साहित्य-संबंधी आंदोलनों के चक्कर में पड़कर बहुत से लोग आँखों में पट्टी बाँधकर एक सीध में कुछ दिनों तक दौड़ते चले जाते हैं। यही दशा फ्रांस में हुई है। अक्षरों की ध्वनि में बड़ी लंबी चौड़ी व्यंजना मानकर वे अक्षरों पर मुख्य ध्यान रखते हुए शब्द-विन्यास कर चलते हैं। | संवेदना-वाद को लेकर सबसे विलक्षण तमाशा कमिंग्ज साहब (E. E. Cummings) ने खड़ा किया है। उन्होंने उक्त फरासीसी प्रवृत्ति के साथ मूतिमत्ता का सिद्धांत मिलाकर पदभंग, पदलोप, वाच्यलोप, अक्षर-विन्यास, चरण-विन्यास इत्यादि के. नए नए करतब दिखाए हैं। जैसे सि-पाही स ( ) टी-देता है। उनकी रचना का ढंग दिखाने के लिये उनकी एक कविता थोड़े से आवश्यक हेर-फेर के साथ नीचे देता हूँ। यद्यपि उसकी विचिन्नताएँ बहुत कुछ अँगरेजी भाषा और उसके छंदों ॐ मात्रा आदि से संबंध रखती हैं और हिंदी में नहों दिखाई जा सकतों फिर भी कुछ अंदाजा हो जायगा। कविता यद्द है