पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३४८

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प्रस्तुत रूप-विधान ३३५ इस मनोवृत्ति को 'कल्पना' और 'कला' इन दो शब्दों ने और भी दृढ़ कर रखा है। जब कविता केवल कल्पना का खेल समझी जायगी और भावुकता की [सेंटिमेंटैलिटी] (Sentimentality) कहकर उपेक्षा की जायगी तब काव्य का प्रकृत स्वरूप दृष्टि के सामने आने का साहस कैसे कर सकता है ? जब कि 'कला' शब्द का इतना शोर है तब काव्य के पढ़ने-सुनने से उत्पन्न अनुभूति उससे अधिक गहरी, उससे अधिक मनस्पर्शिनी, कैसे समझी जा सकती है, जो किसी चित्र, इमारत बेलबूटे' की नक्काशी आदि के सामने आने पर होती है ? मेरा विश्वास तो यही है कि कविता या उसकी समीक्षा जब तक भेद-भाव का आधार इटाकर अभेद-भाव के आधार पर न प्रतिष्ठित होगी तब तक उसका स्वरूप इसी तरह झंझट और खींचतान में पड़ा रहेगा। अभेद-भाव की भूमि तैयार करने का नाम ही *साधारणीकरण है। यह ठीक है कि प्रत्यक्ष वास्तविक अनुभूति से किसी काव्य के पठन-श्रवण से उत्पन्न रसानुभूति में एक बड़ी विशेषता होती है। यह विशेषता यह है कि इस दशा में अपनी पृथक् सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है अर्थात् प्रस्तुत विषय को झूम अपनी योगक्षेम वासना की उपाधि से प्रस्त हृद्य द्वारा महश नहीं करते, निर्विशेष, शुद्ध और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते हैं। झ्स मुक्त हृदय को व्यापक आत्मा का ही एक पक्ष समझना चाहिए । अब हमारा कहना यह है कि प्रत्यक्ष और वास्तविक अनुभूति (Actual experience ) के समय भी कभी कभी हमारा हृदय मुक्त रहता है। अतः भावों की प्रत्यक्ष वास्तविक अनुभूति • भी रसकोटि की हो सकती है और कभी कभी होती है।