पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अप्रस्तुत रूप-विधान ३३९ उसके अंतर्भूत वस्तु, व्यापार मार्मिक हैं तो उनका ज्यों का त्यों चित्रण मात्र भी भाव-मग्न करनेवाला काव्य होता है। | हमें यहाँ अप्रस्तुत रूप-विधान पर कुछ विचार करना है जो काव्य में किसी न किसी बेश में, चाहे अलंकार रूप में, चाहे लक्षणा के रूप में, प्रायः रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांति, अपहुति, दीपक, अप्रस्तुतप्रशंसा इत्यादि सादृश्यमूलक अलंकारों के अतिरिक्त और अलंकारों में भी कुछ न कुछ अप्रस्तुत रूप-विधान मिलेगा। अब देखना यह है कि प्रस्तत रूपों के साथ अप्रस्तुत रूपों की जो योजना की जाती है वह किस दृष्टि से, उसका प्रकृत उद्देश्य क्या होता है । साहित्य-ग्रंथों में उपमा, रूपक इत्यादि के निरूपण में अप्रस्तुत का अाधार केवल सादृश्य या साधर्म्य ही लिखा पाया जाता है। | विचार करने पर इन दोनों में प्रभाव-साम्य छिपां मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है जो प्रस्तुती के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचंडता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बँधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इसी प्रकार के हैं। केवल रूप-रंग, आकार या व्यापार को ऊपर ऊपर से देखकर या नाप-जोख कर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना, वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कवि-कर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्य या अभ्यासगम्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी तब बहुत से उपमान केवल बाहरी नाप-जोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिये । सिंहिनी और भिड़ सामने लाई जाने लगी ।। १[ देखिए 'हिंदी-साहित्य का इतिहास', प्रवर्धित संस्करण, संवत् १९९७, पृष्ठ ८०८ से ।]