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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा कहीं कहीं तो बाहरी सादृश्य.या साधर्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभाव-साम्य लेकर ही अप्रस्तुतों का संनिवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् ( Symbolic ) होते हैं जैसे, सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधुः दीप्तिमान् या कांतिमान् के स्थान पर स्वर्ण; विपाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अंधेरी रात, संध्या की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भाव-तरंग के लिये झंकार; भाव-प्रवाह के लिये संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि । | अप्रस्तुत किस प्रकार एकदेशीय, सूक्ष्म और धुंधले पर मर्मव्यंजक साम्य का धुंधला सा आधार लेकर खड़े किए जाते हैं, यह बात नीचे के कुछ उद्धरणों से स्पष्ट हो जाएगी(१) उठ उठ री लघु लघु लोल लहर । करुणा की नव अँगड़ाई-सो, मलयानिल की परछाई-सी, | इस सूत्रे तट पर छुर छर || ( लहर = सरस-कोमल भाव । सूखा तट = शुष्क जीवन । अप्रस्तुत या उपमान भी लाक्षणिक है।) (२) गूढ़ कल्पना-सी कवियों की, अज्ञाता के विस्मय-सी ऋषियों के गंभीर हृदय-सी, बच्चों के तुतले भय-सी ।-छाया ।। ( ३ ) गिरिवर के उर से उठ उठ कर, उद्याकांक्षाओं-से तरुवर हैं झाँक रहे नीरव नभ पर ।