पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३५४

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अप्रस्तुत रूप-विधान ( उटे हुए पेड़ों का साम्य मनुष्य के हृदय की उन उच्च आकांक्षाओं से जो लोक के परे जाती हैं । )। (४) वनमाला के गीतों-सा निर्जन में बिखरा है मधुमास । | साम्य-भावना हमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेप सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़-संबंध की धारणा बँधानेवाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं । पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव वहीं उत्पन्न करती हैं जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर बड़ी होती हैं। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ या अगूढ व्यंजना करती रहती है। इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्य-विधान होगा वह मनमाना आरोप मात्र होगा। इस अनंत विश्व महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्य-विधान होता है वहीं मार्मिक और उद्ध क होता है। जैसे दुखदावा से नव अंकुर पाता जग जीवन का बन । करुणाई विश्व का गर्जन बरसाता नव जीवन कम् ।। • खुल खुल नव इच्छाएँ फैलात जीवन के दल । यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर से है या जाता। यह ऊषा का नव विकास हैं, जो रज को हैं रजत बनाता । यह् लघु लहरों का विकास है, कलानाथ जिसमें खिंच ग्राता ।। हँस पड़े कुसुमों में छविमान, जहाँ जग में पदचिह्न पुनीत । वहीं सुख में झाँसू बन प्राण, ग्रोस में लुढ़क दमकते गीत ।। -गुंजन