पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३४२
रस-मीमांसा

________________

रस-मीमांसा मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव में । जाकर सुनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना ।। अखिल की लघुत। शाई बन, समय का सुंदर वातायन देखने को अदृष्ट नर्त्तन । • जल उठा स्नेह दीपक-सा, नवनीत हृदय था मेरा ।। अब शेष धुमरेखा से, चित्रित कर रहा अँधेरा ।। मनमाने आरोप, जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्र्य का कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। प्रकृति के वस्तु-व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप को बहुत अधिक चलन हो जाने से कहीं कहीं ये आरोप वस्तु-व्यापारों की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर जा पड़ते हैं, जैसे–चाँदनी के इस वर्णन में(१) जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला । पीली पड़, निबैल कोमल, कृश देह-लता कुम्हलाई । विवसना, लाज में लिपटी; साँसों में राज्य समाई ।। चाँदनी अपने-आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करतीं जान पड़ती है(२) नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनि । | मृदु करतल पर शशिमुख धर नीरव अनिमिष एकाकिनि ॥ –झाँसू इसी प्रकार आँसुओं को ‘नयनों के बाल कहना भी व्यर्थ सा है। नीचे की जूठी प्याली भी ( जो बहुत आया करती है )