पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३५६

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अप्रस्तुत रूप-विधान किसी मैख़ाने से लाकर रखी जान पड़ती है( ३ ) लहरों में प्यास भरी है, हैं भंवर मात्र से खाली । मानस का सब रस पीकर, लुढ़का दी तुमने प्यारी ।। प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य की भावना सदैव स्त्री-सौंदर्य का आरोप करके करना उक्त भावना की संकीर्णता सूचित करता है। कालिदास ने भी मेघदूत में निविंध्या और सिंधु नदियों में बी-सौंदर्य की भावना की है। जिससे नदी और मेघ के प्रकृत संबंध की रमणीय व्यंजना होती है। ग्रीप्भ में नदियाँ सूखती सूखती पतली हो जाती हैं और तपती रहती हैं। उन पर जब मेघ छाया करता है तब वे शीतल हो जाती हैं और उस छाया को अंक में धारण किए दिखाई देती हैं। वही मेघ बरसकर उनकी क्षीणता दूर करता है। दोनों के वीच इसी प्राकृतिक संबंध की व्यंजना ग्रहण करके कालिदास ने अप्रस्तुत-विधान किया हैं। पर सौंदर्य की भावना सर्वत्र स्त्री का चित्र चिपकाकर करना खेल सा हो जाता है। हिंदी की नई रंगत की कविता में उपा-संदरी के कपोलों की ललाई, रजनी के रत्नजटित केशकलाप, दीघनिःश्वास और अश्रबिंदु तो रूढ़ हो ही गए हैं। किरन, लहर, चंद्रिका, छाया, तितली सब अप्सराएँ या परियाँ बनकर ही सामने आने पाती हैं। इसी तरह प्रकृति के नाना व्यापार भी चुंबन, आलिंगन, मधुग्रहण, मधुदान, कामिनी की क्रीड़ा इत्यादि में अधिकतर परिणत दिखाई देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारों का अपना अपना अलग सौंदर्य भी है जो एक ही प्रकार की वस्तु या व्यापार के आरोप द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो सकता । १ [ पूर्व मेघ, ३०-३१ ।]