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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा : हिंदी की नई काव्य-धारा में साम्य पहले उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक ऐसे अलंकारों के बड़े बड़े साँचों के भीतर ही फैलाकर दिखाया जाता था। वह अब प्रायः थोड़े में या तो लाक्षणिक प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता हैं अथवा कुछ प्रच्छन्न रूपकों में प्रतीयमान रहता है। इसी प्रकार किसी तथ्य या पूरे प्रसंग के लिये दृष्टांत, अर्थातरन्यास आदि का सहारा न लेकर अब अन्योक्ति पद्धति ही अधिक चलती हैं। यह बहुत ही परिष्कृत पद्धति है। 'अधिकतर अलंकारों का विधान सादृश्य के आधार पर होता है। सादृश्य की योजना दो दृष्टियों से की जाती हैं—स्वरूप बोध के लिये और भाव तीव्र करने के लिये। कवि लोग सश वस्तुएँ भाव तीत्र करने के लिये ही अधिकतर लाया करते हैं। पर बाह्य करणों से अगोचर तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिये जहाँ सादृश्य का आश्रय लिया जाता है वहाँ कवि का लक्ष्य स्वरूपबोध भी रहता है। भगवद्भक्तों की ज्ञानगाथा में सादृश्य की योजना दोनों दृष्टियों से रहती है। ‘माया’ को ठगिनी और काम, क्रोध आदि को बटपार, संसार को मायका और ईश्वर को पति रूप में दिखाकर बहुत दिनों से रमते साधु उपदेश देते आ रहे हैं। पर इन सदृश वस्तुओं की योजना से केवल स्वरूप-बोध ही नहीं होता, भावोत्तजना भी प्राप्त होती है। बल्कि यों कहना चाहिए कि उत्तेजित भाव ही उन सदृश वस्तुओं की कल्पना कराता है । विरक्तों के हृदय में माया और काम, क्रोध आदि का भाव ही उस भय की ओर ध्यान ले जाता है जो ठगों और बटपारों से होता है। तात्पर्य यह कि स्वरूप-बोध के लिये भी काव्य में जो सदृश वस्तु लाई जाती है उसमें यदि भाव उत्तेजित करने की शक्ति भी हो तो काव्य १ [ देखिए जायसी-ग्रथावली, भूमिका, पृष्ठ १३५ से ।]