पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३५८

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अग्रस्तुत रूप-विधान के स्वरूप की प्रतिष्ठा हो जाती है। नाना राग-बंधनों से युक्त इस संसार के छूटने का दृश्य कैसा मर्मस्पर्शी है ! भाबुक हृदय में उसका क्षणिक साम्य मायके से स्वामी के घर जाने में दिखाई पड़ता है। बस इतनी ही झलक मिल ही सकती हैं। सदृश वस्तु के इस कथन द्वारा अगोचर आध्यात्मिक तथ्यों को कुछ स्पष्टीकरण भी हो जाता है और उनकी रुख़ाई भी दूर हो जाती हैं। सादृश्य की योजना में पहले यह देखना चाहिए कि जिस वस्तु, व्यापार या गुण के सदृश वस्तु, व्यापार या गुण सामने लाया जाता है वह ऐसा तो नहीं है जो किसी भाव-स्थायी यो क्षणिक का आलंबन या आलंबन का अंग हो । यदि प्रस्तुत वस्तु व्यापार आदि ऐसे हैं तो यह विचार करना चाहिए कि उनके सदृश अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार भी उसी भाव के आलंबन हो सकते हैं या नहीं। यदि कवि द्वारा लाए हुए अप्रस्तुत वस्तु-व्यापार ऐसे हैं तो कविकर्म सिद्ध समझना चाहिए । उदाहरण के लिये रमणी के नेत्र, वीर का युद्धार्थ गमन और हृदय की कोमलता नीजिए। इन तीनों के वर्णन क्रमशः रतिभाव, उत्साह और श्रद्धा द्वारा प्रेरित समझे जायेंगे और कवि का मुख्य उद्देश्य यह ठहरेगा कि वह श्रोता को भी इन भावों की रसात्मक अनुभूति कराए। अतः जब कवि कहता है कि नेत्र कमल के समान हैं, वीर सिंह के समान झपटता है और हृदय नवनीत के समान हैं तो ये सदृश वस्तुएँ सौंदर्य, वीरत्व और कोमल सुखदता की व्यंजना भी साथ ही साथ करेंगी। इनके स्थान पर यदि हम रसात्मकता का विचार न करके केवल नेत्र के आकार, झपटने की तेजी और प्रकृति की नरमी की मात्रा पर ही दृष्टि रखकर कहें कि नेत्र बड़ी कौड़ी या बादाम के समान हैं, “वीर बिल्ली की तरह झपटता है और ‘हृदय सेमर के घूए के समान है तो काव्योपयुक्त कभी न होगा । कवियों