पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३६

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काव्य २५. कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमशः उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती हैं। भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुंचे हुए मनुष्य का जगत के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भाव-सत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व-हृदय हो जाता है। उसकी अश्रुधारा में जगत् की अश्रुधार का, उसके हास-विलास में आनंद-नृत्य का, उसके गर्जन-तर्जन में जगत के गर्जन-तर्जन का आभास मिलता है। भावना या कल्पना आरंभ में ही हम काव्यानुशीलन को भावयोग कह आए हैं। और उसे कर्मयोग और ज्ञानयोग के समकक्ष बना आए हैं। यहाँ पर अब यह कहने की आवश्यकता प्रतीत होती है कि ‘उपासना' भावयोग का ही एक अंग है। पुराने धार्मिक लोग उपासना का अर्थ 'ध्यान' हीं लिया करते हैं। जो वस्तु हमसे अलग हैं, हमसे दूर प्रतीत होती है, उसकी मूर्ति मन में लाकर उसके सामीप्य का अनुभव करना ही उपासना है। साहित्यवाले इसी को भावना' कहते हैं और आजकल के लोग ‘कल्पना' । जिस प्रकार भक्ति के लिये उपासना या ध्यान की आवश्यकता होती है उसी प्रकार और भावों के प्रवर्तन के लिये भी भावना या कल्पना अपेक्षित होती हैं। जिनकी भावना या कल्पना शिथिल या अशक्त होती है, किसी कविता या सरस उक्ति को को पढ़-सुनकर उनके हृदय में मार्मिकता होते हुए भी वैसी अनुभूति नहीं होती। बात यह है कि उनके अंतःकरण में चटपट वह सजीव और स्पष्ट-मूर्ति विधान नहीं होता जो भाव को परिचालित कर देता है। कुछ कवि किसी बात के सारे