पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३६०

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अप्रस्तुत रूप-विधान गया है उससे सेवा का आधिक्य तो प्रकट होता है पर लक्ष्मण के प्रति प्रतिष्ठित भाव में व्याघात पड़ता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मण का सादृश्य अविवेकी पुरुष के साथ कवि ने नहीं दिखाया है बल्कि लक्ष्मण के सेवा-कर्म का सादृश्य अविवेकी के सेवा-कर्म में दिखाया गया है। ठीक है, पर लक्ष्मण का कर्म माथ्य है और अविवेकी का निंद्य, इसलिये ऐसे अप्रस्तुत कर्म को मल में रखने से प्रस्तुत कर्म-संबंधिनी भावना में बाधा अवश्य पड़ती है। रसात्मक प्रसंगों में केवल किसी बात के आधिक्य या न्यूनता की हद से काम नहीं चलता। जो भावुक और रसज्ञ न होकर केवल अपनी दृर की पहुँच दिखाया चाहते हैं वे कभी कभी आधिक्य या न्यूनता की हद दिखाने में ही फंसकर भाव के प्रकृत स्वरूप को भूल जाते हैं। कोई आँखों के कोनों को कान तक पहुँचाता है, कोई नायिका को ब्रह्म के समान अगोचर और सूक्ष्म बताता है, कोई यार की कमर ‘कहाँ है, किधर है' यही पता लगाने में रह जाता है। नायिका श्रृंगार का आलंबन होती है। उसके स्वरूप के संघटन में इस बात का ध्यान चाहिए कि उसकी रमणीयता बनी रहे। प्राचीन कवि जहाँ मृणाल की ओर संकेत करके सुक्ष्मता और सौंदर्य एक साथ दिखाते थे, वहाँ लोग या तों भिड़ की कमर सामने लाने लगे या कमर ही गायब करने लगे। चमत्कारवादी इसमें अद्भुत रस का आनंद मानने लगे। पर सोचने की बात है कि नायिका अद्भुत-रस का आलंबन है या शृंगार-रस का । श्रृंगार-रस के आलंबन में ‘अद्भुत' केवल सौंदर्य का विशेषण हो सकता है। अद्भुत सौंदर्य’ हम दिखा सकते हैं। पर सौंदर्य को गायन नहीं कर सकते ।। | "किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अंतर्वृत्ति जब उस भाव के १ [ देखिए सूरदास, पृष्ठ १८९ से । ]